मंगलवार, 17 नवंबर 2015

आजादी की मृग तृष्णा

आजादी की हवा मे ,आधुनिकता की  लहर पर सवार

कब छूट गऐ अपने,कब उतर गऐ कपड़े

कब बिखऱ गया घऱ,कब आत्मा हुई लहुलुहान

कब दिल हुआ छलनी,पता ही न चला

सिसकिया थी पहले पिंजरे मे  
अब आजादी मे केवल और केवल चीत्कार
इस लहर पर सवार सब लुट गया सरे बाजार

माया की जूतम पैजार -काया ही सब संसार

निक्कर हो गई सलवार ,ममता छूटी मझधार

आजादी की लहर पर सवार  
रिश्तो के लगे बाजार ,छूट गऐ सब अपने

सपना हो गया घर बार,बस पता ही न चला

फिर से ढ़ूढ़ रही है पिंजरा,जो रख ले उसे
सलाखो मे और बचा ले उसे ,इस आजादी की घुटन से 

जिसका मोल तुम्हारे , घर रूपी पिंजरे की यातना से 

क्ही अधिक ,चुकता किया है,उसने आजादी के कारागर में
क्ही अधिक गिराया है खुद को,उठने के उन्माद में उसने
पिंजरे मे गिरने से ज्यादा सुबकी है वो खुले आसमान में

अब भी चुनाव नही कर पाती है,पिंजरे मे बैठी है और  गर्दन बाहर

 एकटक बस ताकती चली जाती है,किसी शून्य मे 
अक्सर सोचती है ,जब बाहर थी तो भीतर झांकती रही 
जब भीतर थी तो बाहर उड़ती उड़ती फर्फराती रही
इसी उहापोह मे कब पूरे हो गए स्वास ,पता ही न चला।

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