मंगलवार, 17 नवंबर 2015

लबादा

हकीकत कया है लबादा कया

उफ्फ मेरे मनःसिथ्ती के हिचकोले
कभी बन जाती हूं चट्टान की तरह
अविचल ,मजबूत ,दुस्साहसी
और पा जाती हूं असीम ताकत
गहरी जड़ो वाले दरक्खत की तरह
समेट लेती हूं सभी के दुख दर्द
अपनी पनाह में देती हूं श्वास
अनगिनत पखेरूओं ,पंतगों ,जीवो को
कितनी ही लताओं व तितलियों को
जीवन की धूप में तपते प्यासे राहगीरों को
देती रही हूं स्नेह व सम्मान एक समान
फिर यकायक अपनी ही गहन छाया
से डरने लगती हूं मैं ,कांम्प जाती हूं मैं
हो जाती हूं एकदम नीरीह ,असहाय
आती जाती सासों से भी लाचार
एकदम बीमार हां जीवन निराधार
जानना चाहती हूं मैं इन दोनो में से
हकीकत कया है लबादा कया
कौन हूं मैं या रब कंयू जिन्दा अब तक हूं
मुझे ले कर तेरा इरादा है कया
यही उलझन है मेरी कोइ सुलझाता है कया

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