मंगलवार, 17 नवंबर 2015

तुम्हारी हंसी


संदर्भ –
आजकल महिलाएं सभी क्षेत्रों में पुरुषों के साथ कार्य रही हैं। अनेक अवसरों पर हम उन्हें पुरुषों के साथ कदमताल मिलाते हुए देखते हैं। अक्सर किसी पुरुष के साथ चाहे व अधीनस्थ हो चाहे, चाहे सहकर्मी हो, कोई महिला अधिक दिखाई दे तो लोग उन्हें देखकर उपहास करते है व व्यंगपूर्ण असामाजिक टिप्पणी करते है। पुरुष को महिला के और महिला को पुरुष के नाम के संबोधन गढ़ उन्हें नीचा दिखाने के प्रयत्नों में लगे रहते है। यह एक सामान्य सामाजिक व्यवहार है जो कमतर व्यवाहारिक बुद्धि वाले लोगों द्वारा रचा जाता है। कई बार ऐसे वाकये उच्चतम शिक्षित विशेषज्ञों की सभाओं में नज़र आ जाते है। बिना जाने के कि वह महिला पुरुष के साथ क्यों है सार्वजनिक उपहास का केंद्र उस महिला को अधिक बनाया जाता है। इसी संदर्भ में मैंने यह कविता की पंक्तियां बुनी है।
तुम्हारी हंसी
तुम मौन भी हंसी
तो भी सुन लेती हूं मैं
तुम्हारी लम्पट हंसी
क्या तुम जानते हो
तुम्हारी ये हंसी छीन लेती है
मुझ से मेरी हंसी
और साथ ही छीन लेती है
मेरे सीखने के लिए उपजे सभी अवसर
जो मुझे मिल सकते थे
किसी विद्वान के सानित्ध्य में
ज्ञान अर्जित करने के अवसर
किसी कुशल प्रशासक के सात्रिध्य में
प्रशासकीय कौशलता अर्जित करने के अवसर
किसी आध्यात्मिक गुरू से
अध्यात्म के अभ्यास के सभी के अवसर
किसी कुशल नेता से
नेतृत्व अनुभवों से साक्षात्कार के सभी अवसर
किसी स्थापित कवि या लेखक से
लेखन को समझने के सभी अवसर
और वे सभी अवसर जो मुझे केवल मिल सकते
हैं विशेषज्ञों,अनुभवी व सफल पुरुषों की निकटता से
तुम्हारी हंसी ने कितनी बार मेरे पंख काटे हैं
लड़खड़ाने के बार-बार होते अनुभव
क्या तुमने मुझसे कभी बांटे हैं
तुमहारी हंसी से मेरे घर में मचे तांडव
क्या तुमने कभी देखे हैं
खुद की औलाद से भी पड़ रहे चांडव
क्या तुमने कभी देखते हैं
कलयुग में भी स्त्री धर्म मर्यादा के पालक
स्त्री को जुए में हारने वाले पांडव क्या तुमने कभी देखे हैं
मत हंसो क्योंकि अकसर
ये हंसी मुझे मुझ पर बहुत आती है
तुम्हारी हंसी के पीछे मेरे आंसू
बिन बुलाए मुझे मेरे घर तक छोड़ने आते है
तुम्हारी हंसी के मकसद मुझे भीतर तक झझकोर जाते हैं
इसलिए यदि कभी मौन भी हंसो
तो भी मैं सुन लेती हूं तुम्हारी हंसी
तुम्हारी हंसी का फटा बादल
मेरी आंखों में पानी बन कर झरा करता है
मैं क्यूं औरत हूं
यह सोचकर मेरा मन बार-बार भरा करता है
मैं तो सीख गई हूं
व्यक्ति बन कर आपके बीच रहना
और तुम मुझे महिला बनाने पर तुल हो
मेरे लिए क्यूं पुरुष हो,
व्यक्ति बन कर क्यों नहीं खुले हो
मैंने महिला के पार खुद को खोज निकाला है
तुम कब तक मेरे रंग रूप आकार टिके रहोगे
मुझमें भी एक काबिल व्यक्ति है
जो कभी भी तुमहारे मात्र लिंग से सम्मोहित नहीं होता
वह सक्षमता से तलाश लेता है
तुम्हारे अदम्य गुण जो तुम भी नहीं जानते
मैं तो मात्र प्रशंसक हूं तुम्हारे उन गुणों की
, तुम्हारे तेजस्वी अनुभवों की
जो तुम्हें सहज ही मिल जाते हैं,
तुम्हें उपलब्ध असीमित अवसरों के कारण
जितनी गहराई से मैं
तुम्हारी क्षमताओं में झांकती हूं,
दोगुनी गहराई से तुम मुझ में झांकने लगते हो।
कभी-कभी तुम्हारी लम्पटता दूसरों की सुझाई होती है
और प्रदर्शनी कुरते पजामे से बदलती
जीन टी-शर्ट व बालों की डाई में होती है
माथा पीट लेती हूं, राह बदल लेती हूं,
एक और सीखने के अवसर को
आंखों के सामने से जाता हुआ देखती हूं
हंसने वालों से और हंसने का कारण बनने वाले
दोनों से अपनी हार होते हुए देखा करती हूं
मैं क्यूं और हूं बार-बार सोचा करती हूं,
बार-बार सोचा करती हूं
लेखिका-सुनीता धारीवाल

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