मंगलवार, 17 नवंबर 2015

रन फार फन


रन फार फन
बार बार उठी मैं
फिर से जा टकराई
समाज से
परम्पराओं से
रूढियो से
स्थापित पूर्वाग्रहो से
विपरीत परिवेश से
कभी व्यवस्था से
कभी आस्था से
कभी तुम्हारे दम्भ से
कभी तुम्हारे देह से
तुम्हारी सोच से
तुम्हारी नोच से
अक्सर चोटिल हुई
अक्सर लहुलुहान हुई
हर बार न जाने कैसे
फिर से उठ खड़ी हुई
मेरे नंगे छिले पैरो ने
संघर्षों की राह में
बना ली थी जो पगंडडिया
उन्हें आज मुड़ कर देखती हूं
तो बड़ा संतोष होता है
कि उन्ही पगडन्डियों पर
सड़के बन रही है बड़े जोरो शोरो से
हे नारियों तुम्हारे लिए
तुम्हारे रन फार फन के लिए
उठो बनो धाविकाएँ
दौड़ो -दौड़ो बस दौड़ो
बिना सोचे
कि कपड़ो के बावजूद भी
छाती ढ़कना क्या यहां भी जरूरी है

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