मंगलवार, 17 नवंबर 2015

विवाह समारोह मे विदाई के समय दिया गया - प्रिय बेटी के नाम पत्र

प्रिय बेटी विभाती

सद शिक्षा व अपेक्षा पत्र
 प्रिय बिटिया 
आयुष्मति कुमारी विभाती के पाणिग्रहण संस्कार पश्चात समस्त धारीवाल परिवार दवारा प्रेषित

दिनांक 5 दिस्बर 2011 स्थान -पन्चकूला ,हरियाणा,भारतवर्ष
प्रिय बेटी विभाती( गुड़िया)
समस्त धारीवाल परिवाल आज दिनांक 5 दिसम्बर 2011 को आपके सम्मानित कन्यादान पाणिग्रहण संस्कार को सम्पूर्ण कर अभिभूत है।
आपको पुत्री के रूप में पाकर हम धन्य है ।आपके गुणी सदआचरण ने सदा इस परिवार का मस्तक ऊंचा किया है।हम सब उपकृत महसूस करते है।
मूल रूप से पन्जाब प्रदेश के गांव खयाल जिला मानसा तत्पश्चात गांव करौदा (कुरूदाह) व स्थानांतृत खनौरी मन्डी ,जिला संगरूर निवासित दिवंगत चौ मेरह सिंह (उपनाम मीहरू राम ) के वशंज चौधरी मान सिंह जी के सानिध्य मे  समस्त धारीवाल परिवाल के सदस्य आपकी सुख,समृद्धि , सुयश व दीर्घआयु की मंगल कामना करते हैं।
हम सब अपनी ज्येष्ठ कुल कन्या से अपेक्षा करते है कि आप अपने वैवाहिक धर्म का स्नेह एंव निष्ठा से पालन करेंगी । आप पधियारी परिवार की वंश वृद्धि ,यश वृद्धि , अन्न वृद्धि, धन वृद्धि, शौर्य वृद्धि के लिये सम्पिर्त हो कर धारीवाल परिवार की कुल मर्यादा को संज्ञान में रखते हुए ससुराल में श्रेष्ठ आचरण व्यवहार में लाती रहेंगी।
आप पधियारी परिवार की कुल लक्ष्मी के रूप में समस्त दिवंगत पित्रजनो , वरिष्ठ  वृद्व जनो, ,परिवार के सभी सगे सम्बन्धियों का पूरा मान सम्मान करते हुए , कुल रीति रिवाजों परम्पराओं का संवर्धन करते हुए जीवन निर्वहन करेंगी।
श्रीमान गगन पधियारी एंव श्रीमति लेखा पधियारी को अपने माता पिता समान स्थान देते हुऐ चिंरजीवी देवेन्द्र पधियारी के सम्मान की रक्षा करते हुऐ प्रसन्नता से सुख पूर्वक जीवन यापन करेंगी।
आप इन सब जिम्मेदारियों को अपनाते हुऐ अपने व्यकितगत सुन्दर, साहसिक, स्वाभिमान की भी वीरागनां की भान्ती राष्ट्र हित ,परिवार हित व स्वहित में सुदृढता से सुनिशिच्त कर पाऐंगी ऐसा हमारा विश्वास है।
आप श्रीमान मान सिंह धारीवाल परिवार की ज्येष्ठ सुपौत्री हैं आपका मर्यादित पारिवारिक व सामाजिक आचरण अन्य सभी कनिष्ठ कुल पुत्रियों के लिये प्रतिमान स्थापित करेगा और वे भी आपका सहर्ष अनुसरण कर कुल की प्रतिष्ठा को बढाती रहेंगी ।
पुनः आपके सुखमय जीवन का आशीर्वाद देते हुए हम सब शुभाकांक्षी
समस्त मातृ शक्ति एंव
श्री मान सिहं , श्री वीरेन्द्रर कुमार, श्री चतर सिंह,श्री मेवा राम,
श्री मोहिन्दर सिंह ,श्री सुभाष ,श्री रमेश कुमार,श्री सतीश कुमार ,श्री सतपाल सिंह ,श्री मन्जीत कुमार ,श्री नरेश कुमार ,श्री जसपाल सिंह
,श्री अंकित धारीवाल,दुष्यन्त धारीवाल, रोहन सिंह धारीवाल ,सक्षम धारीवाल, एंव सभी कनिष्ठ सदस्यगण
लेखन साभार -श्रीमति सुनीता धारीवाल

अंगूठा घिस ज्यगा

डाउन टू अर्थ मौसी का कहना

एक दिन मौसी मन्नै समझाण लाग रहयी सै -ना बेटी यो टच आला फोन ना राखै कर अगूंठा घिस जैगा -बटणा आला राखै कर

ओ प्रहरी

(मेरे अपने दामाद सैन्य अधिकारी देवेन्द्र को सादर सर्मिपत)
ओ प्रहरी
तुम जगते हो सरहद पर
तभी तो मैं सो पाती हूं
सपनो की चादर ओढ कर
इत्मीनान के साथ
तुम नहीं मनाते तीज
तभी तो झूलती हूं मैं
सावन में झूले
चन्दन की पटड़ी पर
रेशम की डोरी के साथ
तुम नहीं पहनते रंगीन
तभी तो मैं रहती हूं रंगो में लिपटी
सतरंगी पोशाको के साथ
तुम नहीं देखते कोई फिल्म
तभी तो मैं कर पाती हूं
बैखौफ अभिनय
लाईट ,कैमरा, एकशन के साथ
तुम नहीं कर पाते स्नान
तभी तो मैं कर पाती हूं
सोलह श्रृगांर
नित नए नवीनतम
फैशन के साथ
तुम नहीं जला पाते दीपावली का दीया
तभी तो मैं सुलगा पाती हूं
होलीका की भीष्ण अगिन
मूंगफली-तिल और गुड़ के साथ
तुम नहीं छू पाते अपने बच्चों के कोमल गाल
तभी तो मैं आलिंगन कर पाती हू अपने
पोता पोती और दोहता दोहती को
ममता की खूशबू के साथ
ओ प्रहरी
मैं खूब समझती हूं
सीमाओं के कहर
और तपती झुलसती दोपहर
मजबूरीयां सेनानी की
आंखें मूंदती सता की मनमानी भी
मैं जानती हूं तुम्हें
तुम वीर हो
मेरे देश के रक्षक हो
आन बचाते हो
बचा लोगे तुम उसे भी
हां उसी को
जो मेरी परछाई है
दहेज के दहकते दावानलो से
समूहों मे झपटते बलात्कारियों से
घरेलू हिंसा और प्रताड़ना से
कपटी और शातिरों की झूठी सराहना से
हां उसे
जो मैनें सौंप दी है तुम्हें
पूरे विश्वास के साथ
तुम्हारे साथ रण का ताप झेलने को
तुम्हारे साथ चन्द खुशियों के पल निर्माण करने को
तुम्हारे जैसे ही वीर सन्तान उत्पन्न करने को
तुम्हारे नाम का सिन्दूर या धवल पहनने को
ओ प्रहरी
मत समझना कि रण में अकेले हो तुम
मैं मिलूंगी तुम्हें वहां भी
तुम्हारी पलकों पर जमी धूल की परत में
तुम से टकराती ठिठुरन भरी हवाओं की नमी में
बम गोलों के शोर में गुनगुनाती सी मिलूंगी
तुम्हारे जूते से जो टकराऐंगे कंकर पत्थर वो मैं हूंगी
तुम्हें मैं बन्कर की गहराई में मिलूंगी
रेत की बोरी के रेशों में मिलूंगी
तुम्हे मैं तुम्हारी बन्दूक की धातु में मिलूंगी
तुम्हारे पास जो होगी झाड़ी उसके तिनको में मिलूंगी
तुम्हें मैं तुम्हारी प्यास के अहसास में मिलूंगी
जो भी खाओगे उस भूख की तृप्ति के आभास में मिलूंगी
सदा रहूंगी तुम्हारे आसपास
और दूंगी तुम्हें ढेरों आर्शीवाद
मै रणचनडी बन तुम्हारा कवच रहुंगी
शिकसत कभी तुम्हे अपना मुंह नही दिखाएगी
मौत तुम से डरकर सरपट भाग जाऐगी
तुम्हे ले आऊगी मैं विजय रथ पर
तुम्हे तुम्हारी मां के पास
करूंगी मंगल कामना और इन्तज़ार
ओ वीर अगले जन्म
तुम जन्मना मेरी कोख से
इसी भारत भूमी में
फिर से एक बार
प्रहरी होने के लिए

जो कि सुना था मैंने


जो कि सुना था मैंने
आंधीया मुझे ले गई
झोंको ने क्यूं कुछ न कहा
क्या रिश्ता है उस शहर से मेरा
कैसे मैं कर दूं बयां
वहां सुकून का झोंका बड़ा अच्छा था
चाहे घर मेरा वहां अभी तक कच्चा था
मेरे अपनो ने जो घोंपा था छुरा वो भी सच्चा था
तूफानों से जूझने का मेरा हुनर भी तो अभी बच्चा था
आज भी है उस शहर से मेरा करीबी नाता
जहां मैंने जाना रिश्तों को बनाया हर हाल निभाना
जहां मैंने जाना मेरी ताकत क्या है
अकेली औरत के लिए दुनिया में आफत क्या है
नारी हठ से जो मिलती है जो वो ताकत क्या है
उस शहर मे मैंने शेरों को चुजे बनते देखा है
वक्त बदलते ही चूज़ों की दहाड़ भी सुनी है मैंने
निस्वार्थ प्रेम करते आर्शीवाद देते हजारों हाथ
बेपैन्दे से लुढ़कते रंग बदलते शातिर रंगे सियार
मेरी दिनचर्या के यही तो ये एक दशक तक खेवनहार
अफवाहों के थोक बाज़ार
निशाने पर मैं सदाहबहार
झूठ का परचम उठाते
सच के बड़े ठेकेदार
जाति से ऊपर सोच न पाए
शहर के बड़े सरमाऐदार
भीड़ से घिरी-जिन्दाबाद के नारों के शोर में
क्या कह पाई कभी मैं कि मेरे भीतर की मां
हर रात जार जार रोती है
सीने लगे अपने बच्चों की
भीनी सुगन्ध के लिए तरसती है
मैं चली आई थी वहां
सब आराम छोड़ कर
बडे शहर की चकाचौन्ध
सुविधाओं का अम्बार छोड़ कर
नज़दीक से देखने
जानने और महसूस करने
मेरे देश को
जो कि सुना था मैंने
भारत गांव ,कस्बों और देहात में रहता है
निश्चल, निषकपट ,निषकलंक सा
पर अब तो गांव भी दिवालिया होने लगे है
शहरों की तरह
नफा नुकसान सोचने लगे है रिश्तों की जगह
ये भारत अब भी मिल जाता है मुझे
सोनिया बेटी के विशवास में,
बेटे राजेश और नरेश की आस में
दादा जय सिह में ,ताऊ बलबीर में,
कृषण लाल ,सूरजभान और अमन की तकरीर में
सब भाईयों की आंखों के नीर में ,हर नारी की पीर में
और उन सब अपने सात हजार भाई बहनो में
जिनकी आखें आज भी नम हो जाती हैं मुझे देख कर
जो गाहे बगाहे मेरी बात करते हैं मुझे याद करते हैं
जय हिन्द

ओपरी का असर-भूत प्रेत छाया




ओपरी का असर
हां जी मेरे मै ओपरी का असर आया करै
जद मेरी दादी मेरे जामण पै पल्ली बिछाया करै
उस बख्त मेरे मै ओपरी का असर आया करै
जद मेरी दादी मेरे भाई कै साग पै टिन्डी लाया करै
और मेरे सिर पर गोबर का तासला उठवाया करै
उस बख्त मेरे मै ओपरी का असर आया करै
जद मेरे स्कूल की मास्टरनी स्वेट बुन घर ले जाया करै
और मेरे स्कूल का मास्टर मेरी छाती ओर लखाया करै
उस बख्त मरे मै ओपरी का असर आया करै
जद मेरे गाम का पचास बरस का  टी.बी का तोड्या
एड्स का मरीज कती भून्डा रामेहर जाट का छोरा
20 हजार मै बंगलादेश तै 13 साल की बहु मोल ल्याया करै
उस बख्त मेरे मै ओपरी का असर आया करै
जद मेरे गाम का रुलिया कुम्हार
बेटी के सामुहिक बालात्कार का मुकद्दमा
भरी पंचायत मै उल्टा उठाया करै
उस बख्त मेरे मै ओपरी का असर आया करै
जद मेरे गाम का रामकरण राणा
अपनी नयी ब्याही बेटी की
99 प्रतिशत जली जिंदा लाश नै चिता पै तै
उठा कै ल्याया करै
उस बख्त मेरे मै ओपरी का असर आया करै
जद प्रदेश का लाट
तेजाब गेर कै जलाई ओड़ बेटियां का
फ्री इलाज की योजना बता कर अखबार मै छपवाया करै
उस बख्त मेरे मै ओपरी असर आया करै
जद मेरे देश की राजधानी दिल्ली मै
छ: उत्पाती एक बेटी का सामूहिक बलात्कार कर
उसकी आंतड़ी बाहर कर जाया करै
उस बख्त मेरे मै ओपरी का असर आया करै
जद मेरे देश की महिला सांसद
बलात्कार की घटना पर चिंता जतावै और आंखे भर आवे
उस बख्त एक करोड़पति सांसद उसी सभा मै मुस्कुराया करै
और यो बेदर्द नजारा टेलिविजन पै आया करै
उस बख्त मेरे मै ओपरी का असर आया करै
जद मेरे गाम की विधवा बीरमति बुआ
अपनी 16 साल की बेटी नै दहेज न दे सकण के कारण
55 साल के दहेज गैल बियाहा करै
उस बख्त मेरे मै ओपरी का असर आया करै
जद वृद्ध आश्रम की कमला आंटी
आए शुक्रवार सूटकेस पैक कर विदेश गए बेटे बहु की आस मै
आश्रम के गेट पै बैठ जाया करै
उस बख्त मेरे मै ओपरी का असर आया करै
जद मेरे जिसी कोए बेबे
कैरियर और पापुलरिटी के नाम पर
इस तन के कपड़े उतार बगाया करै
उस बख्त मेरे मै ओपरी का असर आया करै
जद मेरी कोई बेबे 5 हजार मै बालक बेच कै
दो जोड़ी जींस और मोबाईल ल्याया करै
उस बख्त मेरे मै ओपरी का असर आया करै
जद मेरे गाम की करसेनी मौसी की
आठ माह की गर्भवती छोरी का चिता पै जल्दै आणी पेट पाट जाया करै
और आठमासा दौहता पेट मै से उछल कै पंचातिया कै पैरा मै गिर जाया करै
अर मौसी उस नै उठा कै गाम मै ल्याया करै अर एकली दफनाया करै
उस बख्त मेरे मै ओपरी का असर आया करै
जद मेरे जिसी कोई नार घर मै राखै क्लेश
करै हिंसा बोली मार
बिना दवाई बूटी राखै सास ससुर
भूखे लिबड़े फिरै बालक और खुद करकै सिंगार पंचायती बन जाए करै
उस बख्त मेरे मै आरोपी का असर आया करै
जद मेरे जिसी कोई नार
होज्या घणी उद्दण्ड बिस्वास करै लम्पर मानसां का
बना दे घर नै देह बाजार
मां बाप जीते जी मर जाया करै
और पति फांसी पै चढ जाया करै
उस बख्त मेरे मै ओपरी का असर आया करै
जद मेरे जिसी कोई नार
करै इमोशनल अत्याचार
नाजायज मांग मनवाया करै,
कानूना की ठा कै तख्ती
सारे घरक्या नै धमकाया करै
झूठे करै उत्पीड़न के दहेज के मुकदमे
सारे कुणबे नै जेल दिखाया करै
बरसों जोड़या बुढीया नै घर
खन्ड-खन्ड कर जाया करै
उस बख्त मेरे मै ओपरी का असर आया करै
जद मेरे जिसी कोई नार
पाकै महेन्द्र सिंह जैसा जोड़ीदार
सुख दुख की कर ले सांझ
प्रेम प्यार तै करै कमाई
और राम का नाम ध्याया करै
उस बख्त सारी दुनिया तै ओपरी का असर जाया करै


सन्दर्भ
हरियाणा के कैथल गांव-गांव की यात्रा में बिताए कुछ वर्षों में कुछ घटनाएं ऐसी सामने आई कि मैं उन्हें अपनी स्मृतियों से कभी निकाल नहीं पाई। उन्हीं को अपने शब्दों में उतारा है।ओपरी का अर्थ भूतप्रेत अथवा किसी आत्मा की प्रभाव यह आज भी प्रचलित है। अक्सर महिलाओं को उनकी बौद्धिक क्षमता का उपयोग नहीं होता औऱ शारीरिक श्रम उसकी क्षमता के कहीं अधिक हो रहा होता है।जहां अपनी बात कहने का मतलब निल्लर्जता है वहां महिलाएं अपने विचारों को बाहर निकलने का रास्ता नहीं मिलता और वे अजीब सी मन: स्थिति में होती है। उनका कुछ बदला-बदला सा मानसिक व्यवहार ओपरी का असर की तरह परिभाषित होता है। यहां तक यदि कोई महिला साहसिक काम करने की बात भी करें तो उसे कहते है कि इसके ऊपर तो ओपरी का असर है तभी ऐसा कर रही है जैसे महिलाओं में तो चिन्तन, प्रतिक्रिया और साहस जैसी कोई बात होती ही नहीं।

तुम थे

शीषक –तुम थे
संदर्भ-यह कविता मेरे दिवंगत पुत्र अंकित धारीवाल की स्मृति मे लिखी थी
बेटा
तुम हरे भरे थे
मैनें देखा तुम्हें
बीज से पौधा बनते
कोमल सा हरा भरा सा
कभी किसी फूलदान का पौधा लगते
कभी किसी छायादार पेड का छोटा पौधा लगते
कभी ताड़ की तरह तन जाते
कभी चीड़ की तरह गुनगुनाते गाते
कभी लताओं की तरह बल खा जाते
तुम हवा थे बहते थे
स्वच्छन्द और कभी मन्द
कभी तूफानी सी गति पकड़ते थे
कभी रचते थे टोरनैडो
कभी झूम कर बहते पुरवाई सा
और कभी पिछुआ बनकर बहते
कभी बहते शीत लहर सा ठिठुर ठिठुर
कभी लू सा आंच- आंच सा ताप- ताप
तुम जल थे
कभी बहता थे झरने की तरह
कभी लहरो से अकड़ते थे
कभी बादल सा यका- यक फटते थे
कभी झील सा गहराते थे
कभी बारिश की रिमझिम सा गाते थे
कभी घटा की फुहार थे
कभी स्त्रोते का फुव्वारा थे
पर तुम कितने बेचारे थे
तुम मेरे अपने ही बच्चे थे
निडर बेखौफ रुआब जमाते थे
अकड़ कर, पकड़ कर, झगड़ कर,
अपना हक जमाते थे
जो चाहे वो हमसे पा जाता थे
फिर मैने देखा
तुम्हे सामाजिक स्वीकार्यता के आईने से
समाज के रचे ढ़ांचे से मिलान कर देखा
तो टोका
तुम्हे हर नई कपोल पर टोका
ऐसे नहीं वैसे उगो बात बात पर रोका
बल मत खाओ बेल सा दिखते हो
नीचे-नीचे मत फैलो झाड़ी सा लगते हो
शूल को मत उगने दो बबूल सा लगते हो
तुम्हें तो बनना है बस एक पेड़
जो तुम्हारे पिता की तरह छाया दे सकें
हर कष्ट सहकर भी फल दे सकें
एकदम मजबूत चुप रहने व सहने वाला
गहराई से जमीन से जुड़ा एक मजबूत पेड़
मेरी हर टोका-टाकी सामाजिक थी
तुम समझ नहीं पाए
और पेड़ के बनने के दबाव में
खुद को बोनसाई बनता देख
सहन नहीं कर पाए
तुम हवा थे मैने फिर टोका
मत बहो ठंडी समीर
की तरह कंप- कंपाते हो
मत बहो बेखौफ
तूफान सा लगते हो
मत बहो बेहतरतीब
चक्रवात सा दिखते हो
तुमहे तो बस पवन होना हैं
मंद- मंद ठंडी ब्यार सी
सुख देना है जीवन देना है भय नही
अब सोचती हूं
हवा के प्राकृतिक स्वभाव के विपरीत मे उसे
क्या सीखाना और समझाना चाहती थी
जो प्रकृति से स्वभाव मे लाया था
उसे बदलना चाहती थी
उसे कैसे बहना है चाल सिखा रही थी
उसे कुछ समझ नही आया।
स्वभाव के विपरीत
उसे बहना न आया वह चला गया
अनन्त की ओर
जहां उसे किसी सामाजिक ढांचे में
फिट नही होना था
मैने फिर उसे देखा निषचल जल
फिर उसे टोका
उसकी हर चाल पे उसे रोका
उस जल को कई रूप बदलने से रोका
कहा बस जीवन दायिनि नदिया बनो
अठखेलिया मत करो
सादे- सादे से बहो
वह फिर समझ नही पाया
नही बह पाया नदियों की तरह
वह जल स्त्रोत ही सूख गया
खुद ही चला गया धरती की कोख में
और मैं खड़ी रह गई ठगी सी
खुद शिल्पी बनने चली थी वो भी प्रकृति बदलने की
क्या मेरे अनुभवों ने सांसारिक ज्ञान ने, जिम्मेदारियों ने
मुझेप्रकृति से छेड़छाड़ का हक दे दिया था
मैनें बार बार तुमहे उसी आईने से देखा
जो मुझे विरासत में मिला था
मेरी मां से मेरी सास से
कि बेटे को ऐसा बनाओ वैसा बनाओ
और फिर तुमहे टोका
बेटा लेना नहीं देना सीख लो
थोड़ा खाने की आदत डालो
तभी तुम्हारे बच्चे सुख से खा पाएंगे
अधिकार मत जमाओ
पहले कमाना सीख लो
पिता के धन पर अकड़ा नहीं करते
मां की प्रतिष्ठा का रौबदाब नहीं जमाते
तुम क्या हो यही साबित करो, सक्षम बनो
जब भी कुछ बनने निकलता हम फिर टोक देते
उसके प्रयास से पहले उसके कर्म का परिणाम बता देते
वह कुछ भी समझ ना पाया
उसकी सोच जवाब दे गई
वह हमारी ही प्रतिष्ठा और अपेक्षाओं की
बोझिल चादर के नीचे दबता चला गया
संस्कारों ने उसे प्रतिवार नहीं सिखाया
मातृ प्रेम ने उसे अनादर नहीं सिखाया
बस वह कुछ समझ नहीं पाया
उसे जीवन से चले जाना आसान लगा
ऐसा जीवन जीने की जगह
ये क्या कर रही थी मैं
किन पचड़ों में पड़ रही थी मैं
समाज के व अपने हिसाब से
उसकी प्रकृति घड़ रही थी मैं
प्रकृति से छेड़छाड़ तो सबको मंहगी पड़ती हैं
सामाजिक ढांचे में ढालने की पुरानी दुकान
आज गली- गली सड़ती है
फिर क्यूं मैं बना रही थी उसे वह
जो वो था ही नहीं
आज वो नहीं हैं मैं रोती हूं जार- जार
महफिल- महफिल भटकती हूं
सच कहूं तो
अपनी ही नजरों में, खटकती हूं
जिस समाज को मैंने खुद कभी कुछ नहीं समझा
मैंने उसी की दुहाई दी,
वह मेरा कहा गहराई से मन पर ले गया
बस अपने संस्कारवान होने का पता मुझे दे गया
अब घर तो उसने बदल लिया है पर पता नहीं दे गया
अपने किए पर धिक्कारती हूं
मरने की आस है पर फिर भी
जीती- जाती हूं जीती- जाती हूं।
बेटा मैं तुम्हारे बिना
न जीती न मरती हूं,
चुपचाप रूदन मैं करती हूं।

लेखिका-सुनीता 

मनै मार उडारी जाण दियो


मन्नै मेरे नाम तै जाण लियो
मैं उड़ने  नै पंख फैला रहयी
मन्नै मार उडारी जाण दियो
मैं हिमालय पर झण्डा ला रहयी
मेरे जज्बे नैं सलाम करियो
मैं अंतरिक्ष ने माप बगा रहयी
मन्नै मेरी मेहनत का मान दियो
मैं बालीवुड मैं डूण्डे ठाह रहयी
मेरे साहस पै ताडी मार दियो
मैं टेलीविजन पर भी छा रहयी









बहुत हो लिया ए री ए री
मेरी घर घर में पहचान करियो
मैं ओलम्पिक  में मैडल भी ल्या रहयी
मन्नैं तड़के स्टेडियम जाण दियो
मैं रण भूमि म्ह भी ललकारी
मेरे हुंकारे ने साज दियो
मैं सेना के फाईटर प्लेन उड़ा रहयी
मन्नैं कमजोर ना मान लियो
मैं समन्द्रां नैं चीर बाग रहयी
मन्नैं नौ- सेना की कमान दियो
मैं शिक्षा के परचम फहरा रहयी
मन्नैं स्कूल पै पढनै घाल दियो
मैं अपनी कोख तै या सृष्टि रचण रहयी
मेरी रचना की देखभाल करियो
मैं धरती पर सुंदर अवतारी
मेरी रोजै नजर उतार दियो
मैं प्रेम भाव की बण रहयी सारी
मेरे भाव न अपमान करियो
मैं अध्यात्म नै भी शिखर पढ़ा रहयी
मन्नैं राम भजन नै तम्बूरे खड़ताल दियो
मैं हूँ हरियाणे की नारी
भाई मेरे जामण पर नाज करियो
भाई मेरे जामण पर नाज करियो
मां ऐ मन्नैं धरती पै आण दिये
लेखिका-सुनीता धारीवाल

शीषक – बसंत में झड़ी पत्ती


अक्सर पते पत्तीयां पतझड़ में झड़ जाया करते हैं
पेड़ को भी पता है कि झड़ना पतों की नियति है
पुराने झड़ जाएंगे तभी नए आएंगे।
पर मैं तो भरी बहार में बसंत में पेड़ से गिरी पती हूं
जिसमें बहार की नभी अभी बाकी है।
इसलिए सूख भी न पाई हूं
और न ही किसी दावानल में जल पायी हूं।
मेरी यह नमी मेरा पेड़ जरूर पहचानता होगा।
लाख नजरें चुरा ले
मेरी रग-रग नमी वही जानता होगा।
बस इतना बता दे कि गिराया क्यूं-
जान लूंगी तो खुद ही सूख जाऊंगी,
फिर किसी भी आग में आसानी से जल जाऊंगी।
अब तो हर रोज तपती हूं
बिरहा की बरसात में
और नम भी होती हूं
न जीती हूं न मरती हूं
गली-गली कदम- कदम
पैरों तले भटकती हूं
फिर भी नहीं मिटती हूं।
हवा को पकड़ा दी है मैंने अपनी डोर
जिस ओर बहती है उसी ओर लुढ़कती जाती हूं
मेरे पेड़ से जो मेरा प्रश्न है
उसी के उतर की प्रतीक्षा में
अपनी नमी को बचाए रखती हूं
क्योंकि यह नमी ही मेरा जीवन है
जो उस पेड़ से मेरा संबंध जानती है।
मुझे उस हरे-भरे पेड़ का अंश बतलाती है।
मेरे लिए अब बस
इतना ही काफी है जीने के लिए।
लेखिका-सुनीता धारीवाल

तुम्हारी हंसी


संदर्भ –
आजकल महिलाएं सभी क्षेत्रों में पुरुषों के साथ कार्य रही हैं। अनेक अवसरों पर हम उन्हें पुरुषों के साथ कदमताल मिलाते हुए देखते हैं। अक्सर किसी पुरुष के साथ चाहे व अधीनस्थ हो चाहे, चाहे सहकर्मी हो, कोई महिला अधिक दिखाई दे तो लोग उन्हें देखकर उपहास करते है व व्यंगपूर्ण असामाजिक टिप्पणी करते है। पुरुष को महिला के और महिला को पुरुष के नाम के संबोधन गढ़ उन्हें नीचा दिखाने के प्रयत्नों में लगे रहते है। यह एक सामान्य सामाजिक व्यवहार है जो कमतर व्यवाहारिक बुद्धि वाले लोगों द्वारा रचा जाता है। कई बार ऐसे वाकये उच्चतम शिक्षित विशेषज्ञों की सभाओं में नज़र आ जाते है। बिना जाने के कि वह महिला पुरुष के साथ क्यों है सार्वजनिक उपहास का केंद्र उस महिला को अधिक बनाया जाता है। इसी संदर्भ में मैंने यह कविता की पंक्तियां बुनी है।
तुम्हारी हंसी
तुम मौन भी हंसी
तो भी सुन लेती हूं मैं
तुम्हारी लम्पट हंसी
क्या तुम जानते हो
तुम्हारी ये हंसी छीन लेती है
मुझ से मेरी हंसी
और साथ ही छीन लेती है
मेरे सीखने के लिए उपजे सभी अवसर
जो मुझे मिल सकते थे
किसी विद्वान के सानित्ध्य में
ज्ञान अर्जित करने के अवसर
किसी कुशल प्रशासक के सात्रिध्य में
प्रशासकीय कौशलता अर्जित करने के अवसर
किसी आध्यात्मिक गुरू से
अध्यात्म के अभ्यास के सभी के अवसर
किसी कुशल नेता से
नेतृत्व अनुभवों से साक्षात्कार के सभी अवसर
किसी स्थापित कवि या लेखक से
लेखन को समझने के सभी अवसर
और वे सभी अवसर जो मुझे केवल मिल सकते
हैं विशेषज्ञों,अनुभवी व सफल पुरुषों की निकटता से
तुम्हारी हंसी ने कितनी बार मेरे पंख काटे हैं
लड़खड़ाने के बार-बार होते अनुभव
क्या तुमने मुझसे कभी बांटे हैं
तुमहारी हंसी से मेरे घर में मचे तांडव
क्या तुमने कभी देखे हैं
खुद की औलाद से भी पड़ रहे चांडव
क्या तुमने कभी देखते हैं
कलयुग में भी स्त्री धर्म मर्यादा के पालक
स्त्री को जुए में हारने वाले पांडव क्या तुमने कभी देखे हैं
मत हंसो क्योंकि अकसर
ये हंसी मुझे मुझ पर बहुत आती है
तुम्हारी हंसी के पीछे मेरे आंसू
बिन बुलाए मुझे मेरे घर तक छोड़ने आते है
तुम्हारी हंसी के मकसद मुझे भीतर तक झझकोर जाते हैं
इसलिए यदि कभी मौन भी हंसो
तो भी मैं सुन लेती हूं तुम्हारी हंसी
तुम्हारी हंसी का फटा बादल
मेरी आंखों में पानी बन कर झरा करता है
मैं क्यूं औरत हूं
यह सोचकर मेरा मन बार-बार भरा करता है
मैं तो सीख गई हूं
व्यक्ति बन कर आपके बीच रहना
और तुम मुझे महिला बनाने पर तुल हो
मेरे लिए क्यूं पुरुष हो,
व्यक्ति बन कर क्यों नहीं खुले हो
मैंने महिला के पार खुद को खोज निकाला है
तुम कब तक मेरे रंग रूप आकार टिके रहोगे
मुझमें भी एक काबिल व्यक्ति है
जो कभी भी तुमहारे मात्र लिंग से सम्मोहित नहीं होता
वह सक्षमता से तलाश लेता है
तुम्हारे अदम्य गुण जो तुम भी नहीं जानते
मैं तो मात्र प्रशंसक हूं तुम्हारे उन गुणों की
, तुम्हारे तेजस्वी अनुभवों की
जो तुम्हें सहज ही मिल जाते हैं,
तुम्हें उपलब्ध असीमित अवसरों के कारण
जितनी गहराई से मैं
तुम्हारी क्षमताओं में झांकती हूं,
दोगुनी गहराई से तुम मुझ में झांकने लगते हो।
कभी-कभी तुम्हारी लम्पटता दूसरों की सुझाई होती है
और प्रदर्शनी कुरते पजामे से बदलती
जीन टी-शर्ट व बालों की डाई में होती है
माथा पीट लेती हूं, राह बदल लेती हूं,
एक और सीखने के अवसर को
आंखों के सामने से जाता हुआ देखती हूं
हंसने वालों से और हंसने का कारण बनने वाले
दोनों से अपनी हार होते हुए देखा करती हूं
मैं क्यूं और हूं बार-बार सोचा करती हूं,
बार-बार सोचा करती हूं
लेखिका-सुनीता धारीवाल

बिटिया-आईने है खिलौने

जब से बिटिया हुई जवान
आईने खिलौने बन गए है
अब नही निकलती
कोई गुड़िया उसके झोले से ,
काजल, लाईनर, नेल पेंट, लिप ग्लास
से भरा पड़ा उसका झोला
अब नही अटकती उसकी नजर
किसी ठेले वाले पर
किसी गुब्बारे वाले पर
अब तो उसकी नजर
बार-बार खुद पर ही जाती है ।
या अटक जाती है
उन नजरों की ओर
जो उस पर अटक जाती है।
जोर-जोर से रोना चिल्लाना
अब नही सुनाई देता
अब तो धीमे- धीमे से बोलती है
बिना आवाज आसूंओ से गाल भिगोती है।
वह मेरी तरह नही स्वीकारती
मां का दिया कैसा भी
सूट दुपट्टा या फिर दूल्हा
वह पंख पालती है
उड़ान की सीमांए जानती है
अवसर पहचानती है
उसे खुद कैसे जीना है
वो यह भी जानती है
मै तो मां की आंख से डरती थी
वह मेरी आंखो मे आंखे डाल
मनवा लेती है अपनी बात
उससे दब कर जाने कैसे मैं
हलकी हो जाती हूं
चैन सा पा जाती हूं
यह जान कर कि कोई उसे
अब दबा नही पाऐगा
मुझ मे और उसमें
बस थोड़ा फर्क है।
मैनें उसे 25 साल दिए
खुद को जानने समझने के लिए
 और मेरी मां 
 शायद डर गई  थी मेरी सोलह की उम्र से 
और मेरी गुलाबी रंगत से
मेरी शफ्फाक गोरे भरे बदन से
वह क्या घर मे कोई भी न देख पाया शायद 
मेरे जिस्म के भीतर अभी भी 
 गुनगुनाती  एक छोटी सी बच्ची
जो अब भी पापा के कंधो पर
सवारी करना चाहती थी
ठेले पर लटक झूलना चाहती थी
नंगे पैर बाहे फैलाये  तेज दौड़ना चाहती थी 
दीवारों पर पेड़ो पर अब भी चढना चाहती थी
खेलना चाहती थी ऊंच-नीच का पापड़ा
दाई-छप्पा, दाई छप्पा और सब कूद फान्द स्टापू
पर नही मैं तो बस समझना चाहती थी
मेरे शरीर में क्या हुआ है क्यूं बढ़ गया है मेरा कद 
 इस कदर कि मेरी हर पहुंच छोटी हो गई
मैं देखना चाहती थी कॉलेज लाइफ की सुनी सुनाई
चकमक दुनिया – बकझक दुनिया 
संवरती है   बनती है वंहा किस्मत मुनिया
मैं तो उलझी रही थी अगले दस साल
 सवाल दर सवाल हर साल दर साल 
पर मैं उसकी माँ बिल्कुल  डरी नही
उसकी चंचलता से
उसके आकार और विचार से
और पकने दिया तब तक
कि वह मुझे आंख दिखा सके
और तमाम दुनिया से आँख मिला सके
और जी ले अपनी जिंदगी 
उड़ ले और छू ले अपने हिस्से का आसमान 
जब चाहे तब तक उड़े जब चाहे तब सिमटा ले 
अपने पंख पर परवाज का हुनर और अनुभव 
उसकी रगो मे दौड़े बिना किसी भय 
हर तरफ हो बिटिया तुम्हारी जय जय