रविवार, 10 अप्रैल 2016

वो छाँव बाँध कर निकल गए

दुर्गम राहें तो आसां थी
हम राह सुगम पर फिसल गये
था शौक बहुत गम खाने का
अपने अरमान भी निगल गए
जो हाथ पकड़ कर सीखे थे
वो कबके हमसे आगे निकल गये
हम रहे रोकते धूप मियां
वो छाँव बाँध कर निकल गए

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