बुधवार, 13 अप्रैल 2016

बैसाखी रूंगा

मैंने वो
सपने बुनती देखी
खेत की रेत में
दाने चुनती देखी
तुम भी देखो
वो हाथ दराती लिए
आजकल खेत में
सूरज से नज़रे मिला रही है
साल भर के दाने कर लूँ
सखियों से बतला रही है
बाँध दिए है
कितने ही पूले
काट काट कर
ज़मीदार के लिए
और उसकी
निगाहें खेत में
गिरे हर दाने की ओर
जाती है बार बार
जिसे उसने चुन लेना है
सुबह मुह अँधेरे
हाथो में उसके
चीरे है
पर उन चीरो से
नहीं बदलती
उसकी हथेली की रेखाएं
उसे कहाँ चिंता है
किसी सनस्क्रीन की
उसका तो आज कल
वही दिन बैसाखी होती है
जिस दिन
बहुत से दाने
गिरा देती है
कंबाइन उसके लिए
बड़े बड़े खेतो में
यहाँ भी बचा खुचा दाना
उसे खुशी देता है
रुंगा मिल जाने की तरह
और मिल जाता है
यही रूंगा
मंडियों में भी
झारने से बचे फूस
के बीच
जिसे वह टटोल लेती है
हर रोज
और हर साँझ वो
इसी फूस में से रूंगा
घर ले जाती है
और सपने बुनती जाती है

सुनीता धारीवाल

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