वरिष्ठ सामाजिक चिंतक व प्रेरक सुनीता धारीवाल जांगिड के लिखे सरल सहज रोचक- संस्मरण ,सामाजिक उपयोगिता के ,स्त्री विमर्श के लेख व् कवितायेँ - कभी कभी बस कुछ गैर जरूरी बोये बीजों पर से मिट्टी हटा रही हूँ बस इतना कर रही हूँ - हर छुपे हुए- गहरे अंधेरो में पनपनते हुए- आज के दौर में गैर जरूरी रस्मो रिवाजों के बीजों को और एक दूसरे का दलन करने वाली नकारात्मक सोच को पनपने से रोक लेना चाहती हूँ और उस सोच की फसल का नुक्सान कर रही हूँ लिख लिख कर
शनिवार, 30 अप्रैल 2016
शुक्रवार, 29 अप्रैल 2016
बारिश में भीगूँ या भागूं
भीगूँ या भागूँ
या फिर छुप जाऊं
सारे बादल लूट कर
बुधवार, 27 अप्रैल 2016
वही हो रहा है
वही हो रहा है
न रत्ती इधर न उधर
बस वक्त
अपने लम्हे पिरो रहा है
सुनीता धारीवाल जांगिड
आँखों से सवाल छोड़े जाते हो
आँखों से अपनी
सवाल छोड़े जाते हो
पगले इस दिल के लिए
बवाल छोड़े जाते हो ?
सुनीता धारीवाल जांगिड
औरत खाली भी और अकेली भी
एक औरत के पास
धन सम्पति के
के अतरिक्त भी
जिसे लूटने की फ़िराक में
होता है जहान
जब
वह अकेली होती है
तब
पात्र बन विश्वास का
उकेरते है
परत दर परत
उसका सब
तन मन धन
अब
वो खाली भी होती है
अकेली भी
सुनीता धारीवाल जांगिड
बल्कि ऐसे इंसान के लिए ज्यादा एहितयात के साथ सही और सच्चा संवाद करना चाहिए
चौकन्ना रहें बस नज़र रखें यदि कुछ अप्रत्याशित घटने लगे आस पास तो फ़ौरन चौकसी बरतें
बड़े बड़े फ्रॉड घोटाले इसी साफ़ बच निकलने के उपायों के कारण ही घटित हो जाते है
देखो भई राजा के घर क्या सिपाहियों की कमी होती है इस धन को तो राजा महाराजा भी न रख सके
तेरी मेरी तो बात ही क्या रंक भी भी ब्याही जाती है लड़कियां तो
"ठीक ठीक है भाई ब्याह लियो उसने पढन तो दो और पैरो पर तो खड़ी होने की कोशिश तो करने दो
हो तो जाने दो उसे 25 -26 की "
कोई पुगण आली बात तो मान भी लयां यु के कही बिना सर पैर की
पर यह भी सच है कि कुछ लोगो की ज़िन्दगी और रोटी उमर भर किसी न किसी को नकलाते किसी का काम चुराते निकल भी जाती है ये उसका लिखा होता होगा
सियासत में एक अवसर छूटने का अर्थ होता है पांच साल पीछे जाना और लगातार संघर्ष करते रहने वाले के पास अधिकतम 5 या 6 अवसर होते हैं उम्र बढ़ने के साथ अवसरों की गिनती कम होती जाती है
पीढ़िया संघर्ष करती हैं यदि अकेला चलना और साथ में विचारधारा हो
किसी विचारधारा द्वारा उत्पन्न स्थापित संगठन में थोडा बहुत 19 -21 भी खप जाता है पर अकेले स्थापित होने की मंशा में अपरिपक्व आचरण या संवाद नहीं चलता
जब तक पकते है उम्र निकल जाती है
सियासत में " मैं बेहतर "कहने से बात नहीं बनती आपकी विचारधारा दूरदर्शिता जवाबदेही प्रयोगधर्मिता ,सामजिक व् व्यग्तिगत आचरण सभी की परीक्षा प्रतिदिन होती है
सुनीता धारीवाल जांगिड़
हमसफ़र को सिर्फ हमसफ़र ही मानो लड़कियो ये मंजिल नहीं की गलत लगी तो जीवन समाप्त कर लिया फांसी लगा ली
जीवन और भी बहुत कुछ है और हमसफर कोई और भी होगा गर चाहो तो न चाहो तो अकेले भ्रमण का भी अपना ही रोमांच होता है
आत्महत्या हल नहीं देखो दुनिया इसी जीवन में ही
यह मात्र उपमा है जो हम सबसे ज्यादा खुद के लिए इस्तेमाल करते हैं औरो के लिए इस्तेमाल करने से पहले सोच में पड़ जाते है
संभावित है कि खुशफहमी के चलते आप सियासत में उतरने का साहस नहीं करेंगे
और खुद की आलोचना जो कभी न सुनी हो उसे भी सहन नहीं कर पाएंगे
जितने भी दानी कह कर साथ लगते है अंततः निवेशकों में परिवर्तित हो जाते है यह ऐसा क्षेत्र है
सम्भावनाये अथाह होती है इसमें - जिसकी कोई क्षेत्र सीमा नहीं ग्राम पंचायत से लेकर देश का राष्ट्रपति बनने की सम्भावना का क्षेत्र है यह और अवसर सिमित होते
जल्दी सब को है क्योंकि अवसर गिनती के हैं
सियासत में निवेशक दो तीन पीढ़ी तक का निवेश करते है और साधारण भोले कार्यकता को तो एक दो पीढी के बाद ही लाभ मिलता है
अक्सर दादे अपने पोतो के लिए लाभ मांगते भी दिख जाते है की चौधरी साहब इब तो तीसरी पीढी आ गयी इब तो कुछ करवा दो इतने बदनाम तो हो लिए तेरे नाम पै कि कहीं ओर जान जोगे भी नहीं
नेता तो टिक जाएँ जनता टिकने दे तभी न
चाहे कभी कोई नेता रो पड़े कभी अभिनेता रो पड़े या फिर कभी कोई न्यायधीश रो पड़े ये भावना तब प्रबल होती है जब उसे लगता है कि वह असहाय हो गया है या उसके हाथ बंधे है और बाँधने वाले सुन नहीं पा रहे है
असर
अभी नहीं पढ़ती हूँ मैं
किसी भी की लिखी
कि कहीं असर न हो जाये
किसी की लेखनी का
और मौलिकता मेरी
जो अनुभवो का सार
लिख रही है
कही वो हवा न हो जाये
शब्दों के जादू से
भीतर से बहे आते है
वही भाव उतरते जाते है
गुरुवार, 21 अप्रैल 2016
महान
किसी महानुभाव को
महान घोषित करने से
सरल हो जाती है
गर ज़िन्दगी को कर डालिये
सार्वजनिक घोषणा
महानता की
बेहिचक
तुरंत
बहुत कम
कीमत है
आसां जीवन की
अकेली
बहुत कुछ होता है
एक औरत के पास
धन सम्पति के
के अतरिक्त भी
जिसे लूटने की फ़िराक में
होता है जहान
जब
वह अकेली होती है
तब
पात्र बन विश्वास का
उकेरते है
परत दर परत
उसका सब
तन मन धन
अब
वो खाली भी होती है
अकेली भी
बुधवार, 13 अप्रैल 2016
बैसाखी रूंगा
मैंने वो
सपने बुनती देखी
खेत की रेत में
दाने चुनती देखी
तुम भी देखो
वो हाथ दराती लिए
आजकल खेत में
सूरज से नज़रे मिला रही है
साल भर के दाने कर लूँ
सखियों से बतला रही है
बाँध दिए है
कितने ही पूले
काट काट कर
ज़मीदार के लिए
और उसकी
निगाहें खेत में
गिरे हर दाने की ओर
जाती है बार बार
जिसे उसने चुन लेना है
सुबह मुह अँधेरे
हाथो में उसके
चीरे है
पर उन चीरो से
नहीं बदलती
उसकी हथेली की रेखाएं
उसे कहाँ चिंता है
किसी सनस्क्रीन की
उसका तो आज कल
वही दिन बैसाखी होती है
जिस दिन
बहुत से दाने
गिरा देती है
कंबाइन उसके लिए
बड़े बड़े खेतो में
यहाँ भी बचा खुचा दाना
उसे खुशी देता है
रुंगा मिल जाने की तरह
और मिल जाता है
यही रूंगा
मंडियों में भी
झारने से बचे फूस
के बीच
जिसे वह टटोल लेती है
हर रोज
और हर साँझ वो
इसी फूस में से रूंगा
घर ले जाती है
और सपने बुनती जाती है
सुनीता धारीवाल
रविवार, 10 अप्रैल 2016
लौटना होगा
जिंदगी की ओर
अगली भोर
तेरी ओर
कलम की ओर
अगला शोर
कागज की ओर
अब घर की ओर
चुग कर दाना
परदेस को छोड़
जड़ो की ओर
चाहे हैं खुरदरी
पर होती वही है
कोमल फूलों का
सुन्दर पत्तो का
टहनियों का आधार
क्रोध मेरा
क्रोध से आलिंगन कर बैठा है
कर्कश शव्द बाण की ओढ़ चुनरी
शांति को ललकार कर बैठा है
बरस रही हूँ तेजाब की बारिश की तरह
बस दूर रहो इस रूप के आदि नहीं
तुम सारे मेरे प्यारे दूर रहो
रोके है पाँव
उन्ही रास्तों पर
उसी सड़क पर
जो जाती तो है
पहुँचती कहीं नही हैं
पर ------
ख्याल ऐ दुनियादारी
रोके है पाँव
वो छाँव बाँध कर निकल गए
हम राह सुगम पर फिसल गये
अपने अरमान भी निगल गए
वो कबके हमसे आगे निकल गये
वो छाँव बाँध कर निकल गए
मुझे मन मर्जी दे
मैं लिखा समझ कर झुकी रही
यह मान के मैं तो छुपी रही
इस जन्म का यहीं भरना है
बस थोड़ी सी खुदगर्जी दे
न फेर नज़र ये अर्जी ले
आखिरी बार मुझे मन मर्जी दे
दोहराना चाहूँ मैं
जिसको दोहराना चाहूँ मैं
जिसको मनाना चाहूँ मैं
पाया सब अपनाना चाहूँ मैं