वास्तु दोष सी
होती हैं वह औरतें
जो विवाह रस्मो पश्चात
दहेज के संदूक में
रख लाती हैं
चन्द किताबें
चन्द सपने
अपनी पहचान का जूनून
और कुछ तर्क
ताउम्र वे घर में वास्तु दोष
होती हैं
जंजीरें उपाय
नामुमकिन
सुनीता धारीवाल
वरिष्ठ सामाजिक चिंतक व प्रेरक सुनीता धारीवाल जांगिड के लिखे सरल सहज रोचक- संस्मरण ,सामाजिक उपयोगिता के ,स्त्री विमर्श के लेख व् कवितायेँ - कभी कभी बस कुछ गैर जरूरी बोये बीजों पर से मिट्टी हटा रही हूँ बस इतना कर रही हूँ - हर छुपे हुए- गहरे अंधेरो में पनपनते हुए- आज के दौर में गैर जरूरी रस्मो रिवाजों के बीजों को और एक दूसरे का दलन करने वाली नकारात्मक सोच को पनपने से रोक लेना चाहती हूँ और उस सोच की फसल का नुक्सान कर रही हूँ लिख लिख कर
न पूछे मिला है न ढूंढें मिला है
गुरु बन गयी हूँ तुजुर्बा मिला है ।
सच्चा और पूरा गुरु किसी किस्मत वाले को ही मिलता है
जब से मैं
सुविधानुसार सुविधाजनक सामजिक काम
निपटाने लगी हूँ
यकीन मानो अपनी ही नज़र से
नज़र चुराने लगी हूँ
बहाने ढूंढती हूँ
बहाने मिल भी जाते हैं
अपने ही तर्कों से
अपनी आत्मा को बरगलाने लगी हूँ
ऐसा कर
किसी पाप को सर चढाने लगी हूँ
डरपोक हो गयी हूँ मैं
असुविधाजनक हालात
और असुविधाओं से
दूर जाने लगी हूँ मैं
यह क्या कमाने लगी हूँ मैं
गहन सोच में हूँ
दिल समझाने लगी हूँ मैं
सीख कर दुनिया की रवायत
तलाश रहीं हूँ एक ठीकरा एक सर
ताकि फोड़ सकूँ
किसी के सर और भाग निकलूं
परंतु भीतर का गहरा मन
कह रहा है अपनी रीत बदल लो
अपने नाम के साथ लगी फीत बदल लो
और इत्मीनान से रहो
जहाँ हो वहीँ रह जितना बन पड़े
बिना आडम्बर बिना शोर
करो तो करो न करो तो न करो
यह बात मुझे भी जच गयी है
सुविधाजनक जो ठहरी
सुनीता धारीवाल
एक रोज
सड़क किनारे
एक बिना छत के
बस स्टॉप पर
एक बच्चा गोद लिए
कड़ाके की ठण्ड में खड़ी
औरतो को
अपनी बड़ी लंबी सी गाडी में से
मैंने देखा उन्हें
आदतन मैंने गाडी मुडवाई
उनके पास जा लगाई
कहाँ जाओगी
ले चलूँ छोड़ दूँ आपको
मैं उस तरफ ही जाती हूँ
वे कुछ सकपकाई
गाव का नाम बता
गाडी में बैठ गयी
उनके मुँह से निकला
राम तेरा भला करे बेटी
और गाडी में सन्नाटा
ये पहली बार था जब
पहला अनुभव था
कि वे औरते हैं और कुछ बोल नहीं हैं
न ही गाडी में कोई और ओपरा मर्द भी न था
हाँ बस मेरे ड्राईवर के सिवाय
उनमे से एक की गोद में
बच्चा सो रहा था
सब उम्र की पचपन साठ
उनमे से बच्चे वाली ही
पैंतीस चालीस आसपास
की प्रतीत होती थी
चुप्पी तोड़ते हुए मैंने ही
बात बढ़ाई
लगता है किसी तीर्थ से आ रही हो
वे चुप
तो शहर में दवाई या पूछया करवाने आई होंगी
वे चुप
तो किसी रिश्तेदारी से आई होंगी
सब चुप
मैंने थोडा माहौल को हल्का करने की
कोशिश करते हुए फिर पूछा
तो अच्छा पोते के झाड़ा लगवांण गयी होगी कहीं
या नज़र का तागा पढ़वाया होगा
मैंने हँसते हुए पूछा
न बोलो -समझ गयी ताई
किसी पूछ्या देने वाले फ़कीर ने
घर तक चुप रहने को कहा होगा
नहीं तो टूणा टूट जैगा "ओह हो "
ताई दुनिया ब्रह्माण्ड पार कर गी
थाम चौराहे टापण में ही अटक गयी दिखै
एक ताई सयंत सी हो कर बोली
न बेटी ऐसी कोई बात न है
हाम तो सिमधाणे मै तै आण लॉग रह्यी सै
या संतरों है जो गोदी मैं बालक ले रह्यी है न
इसकी छोरी मार दी सासरे आल्याँ नै
संस्कार मैं गयी थी हम सारी
म्हारा इस संतरों गैल दिराणा जिठाना है
जयंय तै इक्कठी गयी थी
मैं थोडा सहम गयी और पूछा
कि कितनी उम्र की थी बेटी
क्यों मारा ?कया हुआ था ?
एक ने बताया
उम्र तो के थी पाछले साल ब्याही थी
17 ,18 की होगी उम्र तो
न्यूं ऐ सुण्न मैं के गलत चाल गयी थी
बटेऊ ने शक शंका थी
कही सुणि मानी कोन्या
घर में ही काट दी काल रात
पूरे बख्त की गर्भिणी थी
जच्चगी की टैम आण नै था
नौ मॉस ऊपर ले रह्यी थी
काल की रात माड़ी आई
छोरी काल नै जा पकड़ी
आज संस्कार कर दिया
बातचीत होते होते
बाँध टूट गया संतरों का
गाडी में हिचकियां
और सिसकिया भर गयी
गावं भी पास आने लगा
मैंने संयत रह कर पूछा कहा उतरोगी
वह बोली सिवयां आली फिरनी पै तार दिए
क्यूँ ?घर छोड़ दूंगी
बोली ना बेटी यु गोदी के इस द्योहते का
संस्कार करणा है माटी ढकनी है
माणस पहल्या ए मसाण में जा लिए
और म्हारी बाट देख रहे हैं
मैं कहाँ मैं रही तब चौंक गयी
ये बच्चा ?
बोली हाँ बेटी जद चिता के आग के ताप में
छोरी का पेट पाट गया
यू बालक चिता पर तै उछल कै
पायां मैं आ पड़या
जणो न्यू कहन आया के हे पंचातियो
मेरा ही रौला था मैं माफ़ी माँगू सूं
बेटी हाम इसने आपने गैल ले आये
इसने कौन हाथ लगावै था
आपणी का आपो साम्भालणा था
मेरे हलक में साँस अटक गयी
जैसे रूह चटक गयी
न थाना न कचहरी था
न शिकायत न बगावत थी
बस होनी का सामना
और स्वीकारना देख रही थी मैं
मैंने कुछ ही देर बाद
उन्हें फिरनी पर उतार दिया था
फिर किसी दिन मिलूंगी
बड़ी मुश्किल से कह पायी थी मैं
अपने भीतर एक शमशान ले
चली आई थी मैं
जो आज तक शोक में रहता है
पल्ली उठा देने के बाद भी
सुनीता धारीवाल
अरे ओ साहस
जाने के वक्त में
क्यूँ चले आये हो
तीमारदारी करेगा कौन
तेरे संग मरेगा कौन
सुनीता धारीवाल
बेटियां भी
खोले रहती हैं मोर्चा
उन माओं के खिलाफ
जो उनके पिता से
दिल लगाने की जगह
अपने सपनो से दिल्लगी में
खो जाती है
और बेटियां
अपने सपनो की दुहाई दे कर
भंग कर देती हैं
माँ की स्वप्न निद्रा
तब
माँ फिर से माँ हो जाती है
बेटी के सपनो को
सींचने लगती है
उसके पिता की पत्नी हो कर
सुनीता धारीवाल