मंगलवार, 24 मई 2016

लौटते अवसर

बरसो दस्तक देते अवसर
न जाने क्यों
मेरे घर के बाहर से
दबे पाँव गुजर जाते है
पहुंचती हूँ जब दरवाजे तक
बस जाती परछाई दिखती है
और लौट आती हूँ मैं
कर्म की उसी खिड़की पर
जिसका न  दरवाजा
न शीशा हैं

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