शुक्रवार, 26 मई 2017

कैसे मन  की परिभाषा में
तन की अभिलाषा दम तोड़ी

मैं इतनी भी खुदगर्ज नही
जा तेरी ही आशा छोड़ी

तन माटी और मन सोना सही 
माटी का मोल बस दो कौड़ी

तन रूहों का ही घर होता है
रब्ब ने ये जगह नही  छोड़ी

न गलत कोई न सही कोई
होता है वही जो होगा सही

क्यों तुमको मन समझाना है
क्यूँ सिद्धांतो को  सरकाना है

मैं कुछ दिन की ही हूँ तड़प बड़ी
मैंने खुद ब खुद आगे बढ़ जाना है 

क्यूँ नाहक चिंता तुम करते हो
चिंतन तो मेरा तराना है

मैं बाट  मुसाफिर थकी हुई
तुमको देखा तो प्यास लगी

सागर में रहती हूँ उथल पुथल
तुम मीठा झरना  मैं  बहक गई

तुम रहो मगन अपने तन मन में
क्यूँ मैंने तुमको भरमाना है

मैं कारावास आदि नहीं
मैंने तोड़ जंजीरें जाना है

चलते जाना ही जीवन है
रुकना तो बस मर जाना है

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