बुधवार, 10 मई 2017

तट बंध तुम्हारे

कंधो ने उठाया है जनाजा मेरा
दिल ने तो कोहराम किया था



तुम  समन्दर हो प्रिय

बहुत गहरे ,बहुत शांत
भीतर हजारों तूफान लिए
तुम मत बढ़ना कभी
मेरी ओर खुद को तूफान किये
प्रलय होगी
तुम से रुका नही जाएगा
फिर सब जल थल हो जाएगा

मैं नदी हूँ खुद ही आऊंगी
तुम में समाने
खुद को मिटाने
तेरे  खारे से जल में
मेरा मीठा जल मिलाऊंगी
तुझ सी खारी हो जाउंगी
नवजीवन पा जाऊंगी
जानते हो
कितना दुरूह सफर तय कर
जंगल झाड़ झंखाड़ रेगिस्तान
चट्टाने पत्थरो से रगड़ खाती
लहूलुहान तुम तक आ पहुंची हूँ
चोटिल भी हूँ और हारी हुई सी भी
तेरे तटबंध के पार खड़ी हूँ
तुम बस देख रहे हो
आतुरता मेरी और मौन हो
स्वभाव है तुम्हारा
कभी उफान पर ला लहरों को
तट बंध के बाहर भी
मुझे ताकते और झांकते हो
निकट दरवाजे पर हूँ तुम्हारे
हर दिन दस्तक भी देती हूं
तुम्हारे तट बंध
मुझ से बात नही करते
पर मेरा होना महसूस करते है
मैं भावना से  बह कर आई हूं  
रोज तुम तक
अपनी भावनाएं
संवेदनाएं लेकर 
तृप्त हूँ तुम तक पहुंच कर भी
काश तुम ये समझ पाते
तुझमे समां जाना
मुझे भाता है
मुझे भी बस यही
सिर्फ यही आता है
तुम अपने को समन्दर ही रखो
तुम मुझ पर कभी न झुको
मैं सदियों से बह रही हूँ
तुमसे सिर्फ तुमसे ही कह रही हूँ
काश तुम सुन पाते
मुझे आने दो
तुम में समाने दो
बूंद बूंद आलिंगन हो जाउंगी
देखना मैं नदी कहाँ रहूँगी
समुन्द्र हो जाउंगी
एक बार तट बंधो से कहो
मुझे गले लगा लें
कोई रास्ता बना लें

सुनीता धारीवाल

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