शनिवार, 5 नवंबर 2016

बहलाऊँ मन को कैसे
शाम बिताऊं तो कैसे
गुम रहता है महफ़िल के बाहर
गीतों से बहलाऊँ कैसे
साँस लगे जैसे भार है कोई 
तन से बाहर भगाऊँ कैसे
सब कुछ तो है पाया मैंने
खुद से जी है चुराया मैंने
सन्नाटो में रहना चाहूँ
अंधेरों को प्रेम है मुझसे
अब और नहीं रहना इस जग में
कोई और वतन है बुलाये मुझको
बहुत कुछ गायब है मुझ में से
खुद को जब जब खोजा मैंने
उदासीनता अक्सर मुझ में घुसपैठ करती है और मैं दुनिया से बाहर चली जाती हूँ और हमेशा के लिए चल दूँ यही ख्याल जगमगाते है जब कहे तब चले आते है

2 टिप्‍पणियां:

  1. यही पंजाबी के महान कवि शिव बटालवी भी कहते थे : असां ते जोबन रुते मरणा
    सच तो यह सुनीता जी कि हर बुद्धिजीवी अकेला है इस धरती पर ।

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  2. यही पंजाबी के महान कवि शिव बटालवी भी कहते थे : असां ते जोबन रुते मरणा
    सच तो यह सुनीता जी कि हर बुद्धिजीवी अकेला है इस धरती पर ।

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