शनिवार, 5 नवंबर 2016

कोई लिखे कविता मुझ पर भी



कोई लिखे कविता मुझ पर भी 
इतनी तो मैं हकदार नहीं 
अधिकार की बातें क्या रखूं 
मुझ पर मेरा अधिकार नहीं 
दिन रात गुजरते रहे उन्हें देखते 
वो कहते हैं मुझे प्यार नहीं
कम बोलने वाले हैं सुहाए उन्हें
बहुत बोलने वाले उन्हें दरकार नहीं
दिल कहीं रुके तो यह शब्द रुके
रुक जाने वाले तो हम सवार नहीं
शोरोगुल में चैन से सोतेे हैं हम
सन्नाटे में रहने को हम तैयार नहीं
कोशिश बहुत की तुम से हो पाये हम
बदल पाने के अब कोई आसार नहीं
खुद को खुद में ढूंढते भी तो कैसे
मेरे तन मन की मलकियत मुझे ही देने को वे तैयार नहीं
दाना पानी से छत तक मोहताजी हूँ उनकी
मेरा तो कोई व्यापार नहीं रोजगार नहीं
जो भी किया सरे बाजार किया
अपना तो कोई भी राजदार नहीं
सीढ़ी बना के फासले तय किये लोगो ने
मुस्कुराया बांस भी और कील भी मेरी
टूटी नहीं मैं सीढ़ी भी कितनी लचकदार रही
कहते हैं बुढ़ापा अकेला हैं
मेरे पास तो सखियों की भरमार रही
सुनीता धारीवाल

1 टिप्पणी: