कोई लिखे कविता मुझ पर भी
इतनी तो मैं हकदार नहीं
अधिकार की बातें क्या रखूं
मुझ पर मेरा अधिकार नहीं
दिन रात गुजरते रहे उन्हें देखते
वो कहते हैं मुझे प्यार नहीं
कम बोलने वाले हैं सुहाए उन्हें
बहुत बोलने वाले उन्हें दरकार नहीं
दिल कहीं रुके तो यह शब्द रुके
रुक जाने वाले तो हम सवार नहीं
शोरोगुल में चैन से सोतेे हैं हम
सन्नाटे में रहने को हम तैयार नहीं
कोशिश बहुत की तुम से हो पाये हम
बदल पाने के अब कोई आसार नहीं
खुद को खुद में ढूंढते भी तो कैसे
मेरे तन मन की मलकियत मुझे ही देने को वे तैयार नहीं
दाना पानी से छत तक मोहताजी हूँ उनकी
मेरा तो कोई व्यापार नहीं रोजगार नहीं
जो भी किया सरे बाजार किया
अपना तो कोई भी राजदार नहीं
सीढ़ी बना के फासले तय किये लोगो ने
मुस्कुराया बांस भी और कील भी मेरी
टूटी नहीं मैं सीढ़ी भी कितनी लचकदार रही
कहते हैं बुढ़ापा अकेला हैं
मेरे पास तो सखियों की भरमार रही
सुनीता धारीवाल
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