शनिवार, 5 नवंबर 2016

पन्ने




खुले पन्नों को कौन पढता है
 कौन सहेजता है जनाब 
कुछ हाथ पोंछ लेते है
 कुछ धूल झाड़ लेते है 
कुछ मुँह ढांप लेते है
 कुछ फेंक देते हैं 
मेरा जीवन रहा 
खुली किताब के बिखरे पन्ने
कोई जैसे चाहे
 शब्दों की मेरे व्याख्या कर ले
मंचासीन है वो 

जो नकल हमारी करते रहे
घर बैठे हुनरमंदों को 

दे आवाज कौन बुलाता है जनाब 

सुनीता धारीवाल


1 टिप्पणी:

  1. हम तो अपनी किताब बन्द रखते हैं सुनीता जी ।
    एक भी पन्ना फट कर उड़ गया तो अमूल्य थाती ही चली गई ।
    किताबें सीने से लगा कर रखने की होती हैं सुनीता जी

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