बाहर भीगे हैं आँगन
भीतर मेरे मन का आँगन
भीगे है और भागे है
तुम्हारे पास जाने को
अल सुबह भी है दीवानी सी
भिगो रही है मेरी
आँखों के कोरो को
और बहे जाते हो तुम
मेरी आँखों से झर झर
खारे से कारे कारे से
दलदली सा है मन
धंसा हुआ है बेतरतीब सा
तेरी आँखों की हाँ में
तेरी जुबान की चुप्पी में
खोज नहीं पाता है
कमल बीज कोई
जो पनपे इस दलदल में
बहार ला दे मादक सी
वृक्ष पर लिपटी पुष्प लता सी
खिल जाऊं मैं हर्षाऊँ मैं
मेरी खुश्बू में महको तुम
बावरे से हो दहको तुम
बहार बने हम तुम दोनों
नवजीवन हो निर्जन में
वरिष्ठ सामाजिक चिंतक व प्रेरक सुनीता धारीवाल जांगिड के लिखे सरल सहज रोचक- संस्मरण ,सामाजिक उपयोगिता के ,स्त्री विमर्श के लेख व् कवितायेँ - कभी कभी बस कुछ गैर जरूरी बोये बीजों पर से मिट्टी हटा रही हूँ बस इतना कर रही हूँ - हर छुपे हुए- गहरे अंधेरो में पनपनते हुए- आज के दौर में गैर जरूरी रस्मो रिवाजों के बीजों को और एक दूसरे का दलन करने वाली नकारात्मक सोच को पनपने से रोक लेना चाहती हूँ और उस सोच की फसल का नुक्सान कर रही हूँ लिख लिख कर
मंगलवार, 7 मार्च 2017
सुबह
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