मैं चाहती भी नहीं
ये तिल्लिसम कोई तोड़ दे
कि मैं तुम्हारी हूँ
इसका कोई भ्र्म तोड़ दे
नीरस ही है और था
यह जीवन तेरे बिना
कोई पा जाऊं उपाय मैं
जो तुम्हे मुझ से जोड़ दे
अपना ले बस वो मुझे
तमाम दुनिया मुझे छोड़ दे
इश्क़ ज्यादा है किसका
आगे निकलने की होड़ दे
सिर्फ एक बार ही हो जाये
वो बस मेरा यकीनन
फिर चाहे दिल मेरा तोड़ दे
वो एक बार कुछ तो कहे मुझ से
हे राम तू उसकी चुप्पी तोड़ दे
जुर्म भी है किया मैंने ही गुनाह मेरा है
मेरे कारावास मे उसे कैदी छोड़ दे
वरिष्ठ सामाजिक चिंतक व प्रेरक सुनीता धारीवाल जांगिड के लिखे सरल सहज रोचक- संस्मरण ,सामाजिक उपयोगिता के ,स्त्री विमर्श के लेख व् कवितायेँ - कभी कभी बस कुछ गैर जरूरी बोये बीजों पर से मिट्टी हटा रही हूँ बस इतना कर रही हूँ - हर छुपे हुए- गहरे अंधेरो में पनपनते हुए- आज के दौर में गैर जरूरी रस्मो रिवाजों के बीजों को और एक दूसरे का दलन करने वाली नकारात्मक सोच को पनपने से रोक लेना चाहती हूँ और उस सोच की फसल का नुक्सान कर रही हूँ लिख लिख कर
शनिवार, 1 अप्रैल 2017
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें