जिसे जरूरत का मेरी
कभी कोई अंदाजा नही
उसी से दोस्ती करने का
अब मेरा भी इरादा नही
रूह की तरंगे नही समझा
ज़ुबान क्या खाक समझेगा
जो आह को नही समझा
आंसू क्या खाक समझेगा
जो फुर्सत में ही सुनेगा मेरी
उसे मैंने अब क्यूं ही कहना है
अकेली कोमल नदी हूँ मैं
मुझे चट्टानो में बहना है
कहीं पर चोट खाना है
कहीं पर मोड़ खाना है
समुंदर तुम नही शायद
जहां मुझ को मिल जाना है
जब जहां हवाऐं ले जाएं
उसी दिशा मुझ को बहना है
मेरी हर उम्मीद पर उसने
करना हर रोज बहाना है
गली है गर संकरी तेरी
मुझे क्यों उस मे जाना है
मिलो जो गैर की तरह
तो क्यूं मिलना मिलाना है
शेष फिर
सुनीता
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