अक्सर बिना कसूर
मेरे हाथों से
रेत की तरह फिसले
कई अवसर
कई मित्र कई रिश्ते
और मैं हक्की बक्की
देखती रह गई
खाली हाथ
खुद को दो थप्पड़ मार लिए
और उन्ही हाथो से ताली बजा ली खुद पर
हर बार ठगे जाने की
बारी मेरी आती है
जिंदगी यूँ मेरा साथ निभाती है
वरिष्ठ सामाजिक चिंतक व प्रेरक सुनीता धारीवाल जांगिड के लिखे सरल सहज रोचक- संस्मरण ,सामाजिक उपयोगिता के ,स्त्री विमर्श के लेख व् कवितायेँ - कभी कभी बस कुछ गैर जरूरी बोये बीजों पर से मिट्टी हटा रही हूँ बस इतना कर रही हूँ - हर छुपे हुए- गहरे अंधेरो में पनपनते हुए- आज के दौर में गैर जरूरी रस्मो रिवाजों के बीजों को और एक दूसरे का दलन करने वाली नकारात्मक सोच को पनपने से रोक लेना चाहती हूँ और उस सोच की फसल का नुक्सान कर रही हूँ लिख लिख कर
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