शुक्रवार, 3 नवंबर 2017

चले आये क्यों

इतना तो जानती हूँ मैं
मुसाफिर हो
कहाँ रुक पाओगे तुम
यूँ ही किसी मोड़ पर
फिर मिल जाओगे तुम
ठोकरों के हवालों से
भला क्या डर जते हम
इतने भर से ही
कहाँ  डगमगाते हम
हम तो प्यार में भी जख्मी 
सरे आम हुए है
जब जिस संग चाहां
वहां बदनाम हुए है
इतने कमजोर नहीं कि
टूटने के खौफ से चटक जाते
हम तो चूर चूर हो
कर भी बन आये है
जाना ही था तो
चले आये क्यूँ
पाना न था तो
खो आये क्यूँ
खुद से डरते हो
या खुदाई से डरते हो
अँधेरे से डरे हो या
परछाई से डरते हो
हम कुचले भी है
छलनी छलनी हम भी है
ये अलग बात है
तेरे लायक हम नहीं है

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