इतना तो जानती हूँ मैं
मुसाफिर हो
कहाँ रुक पाओगे तुम
यूँ ही किसी मोड़ पर
फिर मिल जाओगे तुम
ठोकरों के हवालों से
भला क्या डर जते हम
इतने भर से ही
कहाँ डगमगाते हम
हम तो प्यार में भी जख्मी
सरे आम हुए है
जब जिस संग चाहां
वहां बदनाम हुए है
इतने कमजोर नहीं कि
टूटने के खौफ से चटक जाते
हम तो चूर चूर हो
कर भी बन आये है
जाना ही था तो
चले आये क्यूँ
पाना न था तो
खो आये क्यूँ
खुद से डरते हो
या खुदाई से डरते हो
अँधेरे से डरे हो या
परछाई से डरते हो
हम कुचले भी है
छलनी छलनी हम भी है
ये अलग बात है
तेरे लायक हम नहीं है
वरिष्ठ सामाजिक चिंतक व प्रेरक सुनीता धारीवाल जांगिड के लिखे सरल सहज रोचक- संस्मरण ,सामाजिक उपयोगिता के ,स्त्री विमर्श के लेख व् कवितायेँ - कभी कभी बस कुछ गैर जरूरी बोये बीजों पर से मिट्टी हटा रही हूँ बस इतना कर रही हूँ - हर छुपे हुए- गहरे अंधेरो में पनपनते हुए- आज के दौर में गैर जरूरी रस्मो रिवाजों के बीजों को और एक दूसरे का दलन करने वाली नकारात्मक सोच को पनपने से रोक लेना चाहती हूँ और उस सोच की फसल का नुक्सान कर रही हूँ लिख लिख कर
शुक्रवार, 3 नवंबर 2017
चले आये क्यों
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