मूसाफिर हम भी
मुसाफिर तुम भी
कांटो पर तुम भी
कांटो पर हम भी
चौराहे कभी सीधे न कहीं
मुड़ चले तुम भी
मुड़ गए हम भी
लिखा है जो
होता है वही
न तेरा कुछ सही
न मेरा कुछ सही
होनी को होना
होता है यहीं
दोष तेरा भी नहीं
मेरा भी नहीं
नियति ही बली
,बलवान भई
न कहना है कहीं
न सुनना है कहीं
बातें लाख करे
जोरों से कहीं
हैं बात वही
जो बिन कहे कही
न तुमने कही
न मैंने कही
होता है वही
होगा जो सही
मुसाफिर कभी
रुकता है कहीं
जहाँ सांस खत्म
सफर खत्म वहीँ
न तू रुके कहीं
न मैं रुकूँ कहीं ।
किसी और मोड़ पर
मिलेंगे कहीं
तब हंस कर फिर भी
कर लेंगे
आपबीती न सही
जगबीती सही
होता है वही
जो होता है सही
जोगी न रुके
पानी भी रुके
मुसाफिर का भी
रुकना ठीक नहीं
न कभी मौत रुकी
न मात रुकी
न ममता की उथली झाल रुकी
हम तुम कैसे रुक जायेंगे
नई राह बुलाती
हैं रोज कहीं
राहें ही तो है ।
जो तय करनी है
कहीं पगडण्डी कहीं
कहीं सड़क नई
रुक जाना तेरा धर्म नहीं
कर्मो से फिर राहें बना नई
सुनीता धारीवाल
वरिष्ठ सामाजिक चिंतक व प्रेरक सुनीता धारीवाल जांगिड के लिखे सरल सहज रोचक- संस्मरण ,सामाजिक उपयोगिता के ,स्त्री विमर्श के लेख व् कवितायेँ - कभी कभी बस कुछ गैर जरूरी बोये बीजों पर से मिट्टी हटा रही हूँ बस इतना कर रही हूँ - हर छुपे हुए- गहरे अंधेरो में पनपनते हुए- आज के दौर में गैर जरूरी रस्मो रिवाजों के बीजों को और एक दूसरे का दलन करने वाली नकारात्मक सोच को पनपने से रोक लेना चाहती हूँ और उस सोच की फसल का नुक्सान कर रही हूँ लिख लिख कर
शनिवार, 24 दिसंबर 2016
मुसाफिर हो तुम रुकना न कहीं
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