शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2015

मासिक धर्म आखिर चुप्पी कब तक ?


इस धरा पर  सभी जीवो की मादाएं अपनी  प्रजनन क्षमता के कारण अपने अपने समाज उच्च स्थान पाती है .कुछ बहुलिंगी प्रजतियों  को छोड़ कर सभी मादाएं अपने अपने निश्चित गर्भ धारण  काल में गर्भ धारण करती है व् सृष्टी में निर्माण में अपना योगदान देती हैं.प्रजनन प्रक्रिया सदैव कोतुहल व् जिज्ञासा का विषय रही है जिसे अलग अलग समाजो ने अपने अपने ढंग से छुपाया व् परिभाषित किया है –अधिकतर समाजों में इस विषय पर चुप्पी के ही नियम अपनाऐ हैं . हर किशोरवय मादा में प्रजनन क्षमता का विकास होने लगता है व् इसी दौरान तेजी से  शारीरिक व् मानसिक बदलाव व् विकास होने लगता है . मानव मस्तिष्क के एक ओर स्थित एक मटर के दाने के आकार की पिटयुटरी ग्रंथि विभिन्न हार्मोन का स्त्राव करती है जो किशोर से वयस्क बनने के लिए उतादायी होते हैं . मादाओं में वयस्कता का मुख्य आधार होता है प्रजनन की क्षमता ग्रहण करना .मादाओं में जब यह क्षमता विकसित होती है तो योनी मार्ग से प्रति माह रक्त का  स्त्राव होने लगता है जिसे मासिक धर्म कहा जाता है ,ज्ञात रहे इस धरती की सभी मादाएं मासिक धर्म की इस प्रक्रिया से गुजरती है हमारे समप्रजातीय बन्दर, औरन्ग्युटैन,चिम्पांजी मादाओं में  भी स्त्रियों की तरह प्रति माह  योनी से  रक्त विसर्जित होता है जबकि अन्य मादाओं में यह  रक्त किसी भी मार्ग से बाहर नहीं आता और उनका शरीर इस रक्त को भीतर ही समाहित कर लेता है . वास्तव में प्रकृतिवश संभावित शिशु को सुरक्षा देने के लिए गर्भाशय में रक्त कणों व् –कोशिका की एक चारदीवारी बनने लगती है प्रतिदिन इस में रक्त की एक परत बनती जाती है यदि इस दौरान महिला के अंडे से  शुक्राणु का मिलन हो जाये तो गर्भ धारण हो जाता है और यह रक्त  परत प्रति दिन बढती जाती है और भ्रूण के गिर्द सुरक्षा थैली का निर्माण होता रहता है .यह तरल कवच गर्भस्थ शिशु  को हर प्रकार से गर्भ में ही सुरक्षा प्रदान करता है .शिशु जन्म के समय यह रक्त भी बाहर आ जाता है व् मादा शरीर फिर से इसी मासिक प्रक्रिया से गुजरने लगता है .और यदि गर्भ धारण न हो तो यह रक्त अपने निश्चित चक्र काल में योनी मार्ग से बाहर निकल जाता है ,उसी प्रकार जैसे हमारा  शरीर हर अनुपयोगी वस्तु को बाहर निकाल देता है इस  अनुपयोगी रक्त को भी शारीर से बाहर कर देता है और नवीन प्रकिया में लग जाता है .
किन्तु इस वैज्ञानिक जैविक  जानकारी के आभाव में इस प्रक्रिया  को सदियों से इतना छुपाया गया की इसके प्रति बहुत सी भ्रन्तिओं व्  वर्जनाओं का निर्माण हो गया ,जिनका समाजो में कड़ाई से पालन होने लगा .
.  स्त्रिओं ने भी इसे  प्रकृति द्वारा दिया गया अतिरिक्त बोझ ही समझा .इस प्रक्रिया के दौरान स्त्री को गंभीर पेट दर्द व् अन्य कई प्रकार के असहज शारीरक  प्रभाव का अनुभव करना पड़ता है .चूँकि यह प्रक्रिया केवल मादाएं ही झेल रही थी और पुरुष नहीं तो इसे प्रकृति द्वारा स्त्रिओं को दिया जाने वाला दण्ड समझा गया .और यह प्रक्रिया महिला लिंग को हीन समझने व् हीन घोषित  करने का आधार भी बना .इस प्रक्रिया ने पाषाण काल में महिलाओं को शिकार करने में बाधा दी , यही प्रकिया व् गर्भ धारण की प्रक्रिया स्त्रिओं के भ्रमण में प्राकृतिक बाधा बनी जिसके कारण उन्हें गुफाओं तक सिमटना पड़ा और असह्य स्त्री को भोजन के लिए भी पुरुष अधीनता स्वीकार करनी पड़ी –इन दोनों प्रक्रियाओं ने महिला को लाचार व् पुरषों के समकक्ष ताकत में हीन घोषित किया .इसी जैविक अंतर ने लिंग भेद श्रेष्ठ व् हीन धारणा को जन्म दिया .जो आज तक स्थापित है – स्त्रिओं का अन्य कई प्रकार से सक्षम होना भी उसे लिंग समानता का दर्जा नहीं दिलवा पाया .
 भारत की तरह अनेक देशो में आज भी मासिक धर्म प्रक्रिया को गुप्त विषय ही रखा  जाता है इस बारे में बात नहीं की जाती. आज के आधुनिक वैज्ञानिक दौर में भी विश्व भर में स्त्रियाँ खुद भी मासिक धर्म के बारे में नहीं बताती बल्कि ऐसा बताने के लिए सांकेतिक शब्दावली को ही उपयोग में लाया जाता है . उतर भारत में पीरियड्स आना ,कपडे आना ,महिना आना ,सिग्नल डाउन ,रेड सिग्नल , नेचर पनिशमेंट,और आजकल की छोटी बच्चियों में केक कट गया जैसी शब्दावली उपयोग में लायी जा रही है –हर भारतीय भाषा व् बोलियों में इसके वैकल्पिक  नाम उपलब्ध है जो प्रयोग में लाये जाते है ,.विकसित देशो की महिलाएं  भी मासिक धर्म को  वैकल्पिक नाम से इसे संबोधन करती है चीन में- मेरी  छोटी बहिन आई हुई है , दक्षिण अफ्रीका में –मेरी नानी  ट्रैफिक में फंस गई है  ,लैटिन अमेरिका के कुछ हिस्सों में –जेनी हेस अ रेड ड्रेस ऑन,ऑस्ट्रेलिया में –आई हैव गोट द फ्लैग्स आउट ,डेनमार्क में –देयर आर कोम्मुनिट्स इन द फन हाउस –ब्रिटेन में- आई ऍम फ्लाइंग द जैपनीस फ्लैग ,फ्रांस में - मेरे अंग्रेज आ गए हैं और जापान में-मेरी  लिटल मिस स्ट्राबेरी आई है जैसे भाव वाक्य बोले जाते है.यहाँ तक कि महिला योनी के भी विश्व भर में अनेक वैकल्पिक नाम बोलचाल में व्यवहार में लाये जाते है  जितने भी नाम विश्व में प्रयोग में लाये जाते है वे सब महिला लिंग हीनता को स्थापित करते और पुरुष आमोद को अभिव्यक्त करते ही  सुनाई देते है
भारत में आज भी महिलाएं मासिक धर्म को लेकर अनेक भ्रान्तियो का शिकार है बहुत सी वर्जनाये निभा रही है जिनका आज के युग में कोई औचित्य नहीं रह गया है –आधुनिक शहरो की महिलाये भी घरो में आचार को अन्य खाद्य पदर्थो को हाथ नहीं लगाना ,पुरुष की थाली को हाथ नहीं लगाना ,खाना नहीं बनाना ,जल स्त्रोतों को ,जल भंडारण को हाथ नहीं लगाना ,पौधों, पत्तो ,नवजात शिशुओं को हाथ नहीं लगाना न ही नहाना और सर धोना  व् अलग बिस्तर का इस्तेमाल करना ,धरती पर सोना इत्यादि साथ ही इन दिनों में किसी पूजा स्थल पर नहीं जाना ,जलाशयों की ओर नहीं जाना जैसे नियमो का पालन करती है –तर्क ये है की रजस्वला महिला के संपर्क में  आने से यह सब  दूषित हो जायेंगे .
पुरातन समाज में जब स्त्रियों के पास  मासिक धर्म के प्रबंध के लिए आज जैसे अंत वस्त्रो व् सुविधजनक पैड की सुविधा नहीं थी न ज्ञान था  तब वे यूँ ही पत्ते ,मिटटी राख घास फूंस से अपने रक्त स्त्राव का प्रबंध करती होंगी जो बहुत ही अस्वच्छ तरीका होगा .जल भी आसानी से उपलब्ध नहीं होता था और यदि उपलब्ध था तो जल के सभी स्त्रोत सार्वजनिक थे जहाँ से सभी प्रकार के उपयोग का जल लिया जाता था –उस समय में मंदिर , रसोई घर व् जल स्त्रोतों की स्वच्छता को अक्षुण रखने के लिए रजस्वला स्त्री के लिए यह नियम बनाये गए –ताकी रक्त से रंजित स्त्री को कुछ दिनों के लिए इन स्त्रोतों दे दूर रखा जाये ,चूँकि पहले स्त्रियाँ कृषि में कड़ा श्रम करती थी इसलिए इन दिनों  उसके भ्रमण पर प्रतिबन्ध लगाये गए ताकि  उसे कड़े श्रम से विश्राम मिल सके .हमारा रक्त शर्करा का बड़ा स्त्रोत है और शर्करा जीवाणुओं का घर है –इसलिए स्त्रावित रक्त में जीवाणु रहते है जो खाने पीने व् जल साधनों को दूषित कर सकते थे इसलिए ये प्रतिबन्ध लगाये गए .आज के युग में जहाँ जल घर के भीतर फव्वारों में उपलब्ध है और हर प्रकार के स्वच्छता के साधन उपलब्ध है वहां भी इन वर्जनाओं का पालन किसी अज्ञात भय के कारण होता है ,अधिकतर महिलाएं मानती है कि ऐसा करने के बाँझपन का श्राप लगता है जिसका कोई प्रमाण नहीं .हालाँकि  पिछले दिनों सोशल मीडिया में यह बात बहुत प्रचारित हुई की किसी खोजी अधयन्न ने घोषणा की है मासिक धर्म के दुसरे दिन सर धोने से बाँझ होने का खतरा है ,ऐसी किसी खोज की चिकित्सा  संगठनों ने न कोई पुष्टि की है न ही कोई निर्देश आये है ,संभवत यह नया क्षेत्र है जिस के हर व्यवहार पर  सघन खोज नहीं की गई है .तमाम देशो में अलग अलग प्रकार की गैर व्यावहारिक वर्जनाये है केन्या में  रजस्वला स्त्री को दुधारू गाय के पास जाने की मनाही है और स्त्रियाँ मानती रही  है उनके  गाय के पास जाने से गाय की मौत हो जाएगी . इस आवश्यक व् अपरिहार्य  प्राकृतिक प्रक्रिया को इतना हीन माना जाने लगा कि रजस्वला स्त्री को अछूत की तरह रखा जाने लगा .नेपाल में मासिक धर्म के  दिनों में स्त्री को घर से बाहर एक झोपडी में रखा जाता है जहाँ उसे इन पांच दिनों में अछूत की तरह रखा जाता है –उसे खाना भी वहीँ पहुंचाया जाता है ,
चलिए इस विषय की पृष्ठ भूमि से अलग आज की बात करते हैं वर्तमान में एक लड़की की मासिक धर्म प्रारंभ औसत  आयु 12 वर्ष से  घट कर 9 वर्ष हो गई है इंडियन कौंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च की रिपोर्ट अनुसार भारत में 70 %लड़कियों को प्रथम रज: दर्शन से पहले पता नहीं होता कि यह क्या प्रक्रिया है और सभी ने इसे गन्दा,और प्रदूषित बताया और इसे शर्म का विषय व् छुपाने को उचित ठहराया .देश में 88% लडकिया आज भी गंदे व् पुराने कपड़ो व् राख का उपयोग उपयोग करती हैं आधुनिक महंगे नैपकिन्स बाकी महिलाओं की पहुँच से आज भी बाहर है .गंदे पुराने वस्त्रों से मासिक धर्म का प्रबंध करने के कारण भारत की 70% महिलाये प्रजनन प्रजनन प्रणाली संक्रमण पीड़ित हैं .13 करोड़ घरों में आज भी शौचालय नहीं हैं जहाँ महिलाएं अकेले में अपना प्रबध कर सकें .53% सरकारी विद्यालयों में शौचालय नहीं है जहाँ लडकिया स्कूल में भी अपना प्रबंध कर सकें –ऐसे में लडकियां अधिकतर या तो स्कूल ही नहीं आती या फिर घर चली जाती है –लड़कियों की हाजिरी कम हो जाती है वो पढाई में भी पिछड़ने लगती है –अंतत पढाई छूट जाती है 
 हमने  चंडीगढ़ क्षेत्र में अपने स्तर पर की गई जांच में पाया  स्कूलों में मासिक धर्म प्रबंध हेतु कोई व्यवस्था आवश्यक नहीं बनाई गई है ऐसा प्रिंसिपल के विवेक पर निर्भर करता है की वह क्या व्यवस्था अपनाता है ,लडकियां आपात में  स्कूल का डस्टर इस्तेमाल कर रही है और यहाँ तक की दूसरी लड़की का इस्तेमाल किया हुआ कपडा भी बाँट लेती है ,बच्चियों को पता नहीं वे अपनी सेहत के साथ कितना खिलवाड़ कर रही है –अधिकतर बच्चियां स्कूल से घर चली जाती है .कुछ संस्थाएं स्कूलों में अपने स्तर पर कार्यक्रम चलाती है व् स्कूल में सेनेटरी पैड्स इतियादी भी दे कर आती हैं –नाम न छापने की शर्त पर बच्चो ने बताया की कुछ अध्यापिकाएं खुद ही वह पैड्स ले जाती है स्वय के इस्तेमाल के लिए . स्कूल की अद्यापिकाओं का कहना कि अकेले पैड्स उपलब्ध करवाने से बात नहीं बन रही –यहाँ सरकारी स्कूलों में पढने वाली बच्चियों को अंत: वस्त्र पहनने का अभ्यास नहीं है अंत:वस्त्र की अनुपलब्धता के चलते सेनेटरी पैड भी उपयोग में नहीं आ सकते व् लडकियां घर जाने की जिद करती है जिसे उन्हें मानना पड़ता है .
आज इस विषय पर विश्व व्यापी चर्चा चल रही है और स्थिति सुधरने के प्रयास हो रहे है -संयुक्त राष्ट्र वीमेन –वर्ल्ड बैंक जैसी अनेक अंतरष्ट्रीय प्रभाव पैदा करने वाले संगठनों ने इस विषय को मुख्य धारा के कार्यक्रमों में शामिल कर लिया है व् वैश्विक जागरूकता  की रूपरेखा व् कार्यक्रम बन गए है –सभी देशो की सरकारों ने अपने किशोर स्वास्थ्य कार्यकमो में मासिक धर्म प्रबंध व् स्वच्छता को जोड़ दिया है .भारत सरकार के राष्ट्रीय किशोर स्वास्थ्य कार्यक्रम में इसे शामिल किया गया है व् कई प्रदेशों में सफलतापूर्वक कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं .आपको सज्ञान होगा कि जम्मू कश्मीर में बाढ़ में फंसी महिलाओं को केरल की  कुटूम्बश्री संस्था ने  दस हजार सेनेटरी नैपकिन बांटे उसकी विश्व भर में प्रसंशा हुई और आपदा राहत कार्यक्रमों में महिलाओ के पैड्स की राहत देना सदा के लिए जुड़ गया ,दरअसल महिलाओं की इस ज़रूरत पर किसी का ध्यान नहीं गया था और इस ज़रूरत की गंभीरता को कभी किसी ने नहीं समझा परन्तु आज वैश्विक पटल पर अब यह ज़रूरत हाशिये पर नहीं है. जर्मनी स्थित वाश यूनाइटेड  संगठन के सतत  प्रयासों से विश्व भर में मुहीम चलायी जा रही है जिसमे चुप्पी तोड़ने व् युवतीओं का जनन स्वास्थ्य को  सरंक्षण देने का आह्वान विश्व भर में किया जा रहा है .प्रतिवर्ष 28 मई को अन्तराष्ट्रीय मासिक धर्म दिवस मनाने की पहल की गई जिसमे 140 देशों में कार्यक्रम आयोजित किये गए .
जिस विषय पर सदियों चुप्पी साधी गई हो उस पर खुल कर चर्चा करना एक चुनौती है चंडीगढ़ क्षेत्र में रेड ब्लिस इंडिया नामक  मासिक धर्म स्वच्छता कार्यक्रम का संचालन कर रही अधिवक्ता विभाति पढिय़ारी का मानना है जबकि यह विषय हमारे देश की भावी माताओं से जुडा है और हमारी बच्चियों के स्वास्थ्य से जुड़ा है हमे इसकी गंभीरता को समझना चाहिए .शहर के लोग भी इसे संवेदनशीलता से नहीं लेते और  कसबे और गावं में बात करना और भी कठिन है .जब हम स्कूल में जाते है तो कुछ प्रिंसिपल तो बहुत समझदारी से इसकी  गंभीरता समझते है और कुछ पुरष अद्यापको के लिए यह समय की बर्बादी है .ज्यादतर पुरषों का प्रथम प्रक्रिया यही होती है क्यूँ ढका उधाड़ रहे हो –औरतों की बात औरतों तक रहने दो. क्यूँ महिलाएं यह व्यक्तिगत  विषय शुरू कर अपना सरे आम मजाक बनाना चाहती हैं ,पर धीरे धीरे जब वे इस विषय को अपनी माँ बहिन या बेटी के सन्दर्भ में देखना सुनना शुरू करते है तो वह इस विषय को बड़े स्तर पर उठाने की वकालत करने लगते है .अभी शुरुआत है समय लगेगा की चुप्पी सच में टूटे और मासिक धर्म के बारे में शर्मिंदगी के भाव फक्र में बदल जाये .हम सब प्रकृति की इस व्यवस्था की  सरे आम प्रसंशा कर पाए .
गाँव में भी हम काम कर रहें है वहां पर भी किसी पुरुष कार्यकर्ता का हमरे दल में स्वीकर्य नहीं होता हम लड़कियों  से अलग से बात करते हैं .गाँव कस्बो के अग्रणी पुरुष  हमें देख रहें है व् हमारे  उद्देश्य का निरीक्षण कर रहें है पर खुल कर कुछ नहीं कह रहें हैं बात करने की कोशिश भी करो तो बात बदल देते हैं या किनारा कर लेते हैं ,पुरषों के लिए भी यह नया अनुभव हो रहा है कि कोई बात कर रहा है वर्ना आज तक पुरषों ने तो मासिक धर्म को लेकर लड़किओं का  या तो उपहास किया है या लड़कियों का सरे आम मजाक उड़ाया है और अब उन्हें  इसे गंभीर विषय मानने में हिचकिचाहट हो रही है .
 लड़कियों  व् उनकी माताओं को जागरूक  करना उन्हें उचित प्रबंधन का ज्ञान देने के साथ ही पुरुष वर्ग में इस विषय को ले जाना भी हमारे कार्यकर्म का हिस्सा है –क्यूंकि उतर भारत में पुरुष ही मुख्यतः घर का मुखिया है व् पोषक है –अगर उसे इस विषय की गंभीरता का ज्ञान नहीं होगा तब तक वह महिलाओं व् बेटियों को स्वच्छ प्रबंधन के लिए सेनेटरी पैड या दवाई का पैसा नहीं देगा .और न ही बेटियां संकोचवश मांग पाएंगी .पुरुष का प्रभाव घरो के फैसले में आज भी अधिकतर सर्वोपरि ही है इसलिए उसका जागरूक होना भी जरुरी है –चुप्पी और संकोच टूटेगा तभी कुछ बात बढ़ेगी .विभाति का कहना है की पुरुष चाहे कोई अधिकारी हो चाहे पत्रकार या चाहे कोई और विषय को सुनते ही कन्नी काटने लगता है जैसे वह सुन कर कोई अपराध कर रहा हो ,शुरू शुरू में हम कभी प्रेस नोट भी ले जाते तो कुछ पत्रकार महोदय पढ़ कर कहते इसका क्या करें हम इस में छापने जैसा क्या है –कोई नहीं छापेगा क्यूंकि संपादक भी पुरुष बैठा है वो मेरा मजाक उडाएगा. ये भी कोई खबर बनती है .पर धीरे धीरे मीडिया और  प्रसाशन को भी हमारी बात समझ आने लगी और हमे सहयोग मिलने लगा अब तक हम पांच हजार लड़कियों तक पहुँच गए है जिन्हें हम ज्ञान दे रहें है ताकि वे स्वस्थ युवति व्  भविष्य में स्वस्थ माँ बन सकें .
आप देखेगे की धीरे धीरे पुरे देश में यह मिशन की तरह फ़ैल जायेगा तब कोई टैबू नहीं रहेगा .आज चुनौती तो यह है कि जिन  गरीब लड़कियों की पहुच स्वच्छ महंगे नैपकिन या समकक्ष प्रबंधन तक नहीं है उन्हें कैसे सस्ती दरों पर नैपकिन उपलब्ध करवाए जाएँ .जिनके पास पीने का पानी नहाने का पानी उन्हें कैसे स्वच्छता के पाठ पढाये जाये और अनुभव करवाए जाएँ. बिना राज्य सरकारों व् समाज के सहयोग बिना दशा नहीं सुधर पायेगी .
विभाति के साथ उनके दल में पर्यावरणविद अमनप्रीत ने बताया कि हर मादा हर महीने दस से पैंतीस मिली लीटर   खून का स्त्राव करती है जिसे इसी भूमि पर ही निबटाना होता है –करोडो टन रक्त रंजित कचरा धरती में ही निबटाना होता है ,आज कल के आधुनिक पैड प्लास्टिक जेल्ल से बने है जिन्हें धरती में दबाया जाये तो इन्हें नष्ट होने में डेढ़ सौ साल लगेंगे भारत की आधी जनसँख्या यदि इस प्रकार का करोड़ो टन अगलनीय कचरा का हर महीने धरती में दफ़न करने लगेगी तो पर्यावरण का क्या होगा इसलिए हम पर्यावरण मित्र पैड बनाने के लिए कृत संकल्प हैं और सस्ते दाम में महिलाओं द्वारा ही तैयार करवाने पर काम कर रहें है .
 
निसंदेह बदलाव हो रहा है पंजाब विश्व विद्यालय की अनेक छात्राओं ,गुरलीन ,श्वेता ,अंकिता ,सोनम  ने माना की अब वे अपने पिता से भाई से या पुरुष मित्र से सेनेटरी पैड मंगवाने में भी नहीं हिचकती और इस विषय पर बात कर लेती हैं और वे इसे ईशवर का वरदान मानती है और वरदान छुपाये नहीं जाते .ऐसा सोच में बदलाव का कारण उनके शहर का खुला व् जागरूक वातावरण है जहाँ उन्हें स्कूल में ही मासिक धर्म के प्रति वैज्ञानिक सोच मिल गई थी जबकि अन्य छात्राएं आज भी आपत्ति करती है कि उनके साथी लड़के सह्पाठी इतना शिक्षित होते हुए भी पीरिड्स का मजाक बनाते रहते हैं 
संतोषजनक व् उत्साहित करने की बात यह है की चारों ओर  प्रयास शुरू हो गए हैं नेपाल की  सर्वोच्च अदालत ने इस व्यवस्था में दखल दे कर स्त्रिओं को  महीने के दिनों अलग झोपड़ीनुमा घरों में बंद रखने की  प्रथा से मुक्त करने के आदेश दिए हैं यह किसी भी सरकार का पहला दखल है जो शुभ संकेत है की महिलाओं की बात महिलाओं तक कह कर इस विषय को और दबाया जाना  अब  निकट समय में ही अतीत की बाते हो जाएँगी 




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