दूरी है शहर की
दूरी है उम्र की
दूरी है परिवेश की
दूरी है सोच की
दूरी है लग्न की
दूरी भी है अग्न की
दूरी है कद की
दूरी है चाहने की हद की
दूरी है भाषा की
दूरी है आशा की
दूरी है चाह की
दूरी अलग अलग राह की
फिर भी दो कदम ही सही
चलो चल के देखें तो सही
ज़िन्दगी रोमांच सी लगेगी
बाकि मुक्क़दर ही सही
दूरी इतनी भी नहीं कि नपेगी नहीं
वरिष्ठ सामाजिक चिंतक व प्रेरक सुनीता धारीवाल जांगिड के लिखे सरल सहज रोचक- संस्मरण ,सामाजिक उपयोगिता के ,स्त्री विमर्श के लेख व् कवितायेँ - कभी कभी बस कुछ गैर जरूरी बोये बीजों पर से मिट्टी हटा रही हूँ बस इतना कर रही हूँ - हर छुपे हुए- गहरे अंधेरो में पनपनते हुए- आज के दौर में गैर जरूरी रस्मो रिवाजों के बीजों को और एक दूसरे का दलन करने वाली नकारात्मक सोच को पनपने से रोक लेना चाहती हूँ और उस सोच की फसल का नुक्सान कर रही हूँ लिख लिख कर
शुक्रवार, 4 अगस्त 2017
दूरी
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