मन की सूखी धरती पर
मैंने प्यास बिछा दी है
तुम बरसो तो तब जानूं
मैंने तो जान लगा दी है
बादल तुम और धरती मैं
जलधर को मैंने सदा दी है
मैं सूखी माटी फट बैठी हूँ
मैं आस तेरी में डट बैठी हूँ
सब जल थल हो जाना चाहूँ मैं
कर सृजन नया इतराऊं मैं
तुम दूर गगन में उड़ते हो
बस हवा से बाते करते हो
मेरा मौन चीख कर बुलाता है
तुम्हे सृष्टि रचना में लगाता है
चहुँ ओर प्यास ही बिछा दी है
तेरे रिसने को जगह बना दी है
ओ बरसो मेरे तन मन पर
मैंने सावन को पुकार लगा दी है
सुनीता धारीवाल
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