कविता -घाट घाट का पानी
ठीक ही तो कहते हो
सही पहचाना
घाट घाट का पानी
पिया है मैंने
यही रहा मेरा
आजीवन पर्यटन
कितने मंदिरो मस्जिदो गुरुद्वारों के घाट
पहुंची भी और पानी चखा भी
कितने तालाबो का कीचड़ सना पानी
जो नहाने भर का था वो पिया भी
कभी संतान के लिए
कभी तुम्हारे लिए
कभी रियाया के लिए
जिन घाटो पर तर्पण होता है
वह भी चखे मैंने
जहाँ नव विधवाएं चूड़ियाँ तोड़
वैधव्य स्नान करने जाती है
उन घाटो का जल भी
अंजुली भर चखा मैंने
जिन जोहड़ो पर अल सुबह लोग
पाणी कानी के हाथ धोने
जा पहुँचते है
उसका भी स्वाद कहाँ अछूता मुझ से
उन नमक डले लोटों का जल
भी चखा है मैंने
जिन्हें पंच्यात बीच बैठ भरा जाता है
और नमक डाल शपथ ली जाती है कि
बिरादरी बीच का मामला है
कोई ठाणे नहीं जाएगा
गरीब की बेटी लुटी आबरू
और क़त्ल का मामला
यहीं लोटे के सामने सुलझाया जायेगा
याद आया मैंने तो
उस तालाब का जल भी मुहँ लगाया है
जहाँ सर पर मैला ढोने वाली औरत ने
टोकरा एक ओर रख अपना सर धुलवाया है
गावं देहात की गली गली में खुले
उन छोटे छोटे पूछाघरों की अँधेरी
गुफाओ में जहाँ भूत प्रेत
बदन उघाड़ कर डराए जाते हैं
और जल में कुछ मन्त्र फूक
प्रेत भगाए जाते है
उन बंद बोतलों का पानी भी मैंने
पी कर दिखाया है
बड़े बड़े यज्ञो में आचमन का जल
मैंने पिया है
कलश यात्राओ के कलशों में भरा
कभी 21 कभी 31 घाटो का पानी
भी मैंने पिया है
वाल्मिक का चमार का ,
खाती का लुहार का
सिकलीगर का सिहमार का
बैरागी का सुनार का
जाट का सैनी का
धोबी का कुम्हार का
पंडित का रेफूजी का
धानक का सरदार का
अड़तीस जात के घर भीतर
नलको का पानी
उन्ही के बर्तनों में पिया
और जिया है मैंने
रंडी की दुकान का
कोठे की मचान का
मंडी के सुलतान का
बाबे की कोठी आलिशान का
पानी भी कहाँ रहा अछूता
मेरी जिह्वा की तंत्रिकाओं से
राज दरबार के घाट का
राजाओ के ठाठ का
मंत्रिओं की बाँट का
सत्ता की आंट का
पानी पिया है मैंने
कुत्तो के पात्र का
गरीब किसी छात्र के
अभावग्रस्त गिलास का
पानी पिया है मैंने
हरी के द्वार का
पीर की मजार का
पानी पिया है मैंने
देसी का अंग्रेजी का
कच्ची दारू की भट्टी का
डूम का मिरासी का
ये दुनिया लाख चौरासी का
पानी पिया है मैंने
ये घाट घाट का पानी
जब चखा तो यकीन मानो
पानी सर चढ़ गया
फिर तो एक घाट भी नहीं छोड़ा
और पीने से मुख न मोड़ा
जितने भी घाट मैंने गिनवाये है
तुम्हारी कसम मैंने नहीं बनवाये है
ये सब तुमने ही बनाये थे मेरे लिए
कि मैं जल से बाहर ही न निकलूं
इसे आँखों में भी रखूं
इसे देह में भी रखूं
और तुम्हारे दैहिक जलप्रपात तले
अपना वजूद तलाशूँ
यकीन मानो जितना भी पानी
अपनी देह की गुफाओं से
निगला है
सब का सब आँखों से झरा है
मन की उलझी कंदराओं से
जबरन खींचा था जो पानी
माँ कसम खारा ही नहीं
तेजाबी हो कर मेरी
आँखों के कोरो में जा बैठा है
कितने कड़वे घूँट
पी कर मुसुकुरायी हूँ मैं
अब तो पकी उम्र के रोयें
पानीयों के बांध बनाना सीख गए हैं
समेट लेते है सारा पानी
और मैं अब भी विचरती हूँ
नए नए घाट
ताकि
घाट घाट जा कर
एक दिन खुद को पा लूँ
और उस दिन तुम कहो
घाट घाट का पानी पिए
बेगैरत औरत
और हाँ
घाट घाट का पानी पीते पीते
मैं घाट घाट की बोली भी
सीख गयी हूँ
मुझे अब शर्म नहीं आती
गरियाने में
मैं जानती हूँ कहाँ शिष्ट होना है
कहाँ शिष्टाचार खोना है
बस मेरी इसी समझ से
थोडा डर सा गया है
जमाना मुझ से
और आजकल मेरे मुहँ कम ही लगता है
सुनीता धारीवाल जांगिड