बुधवार, 10 अगस्त 2016

खेल

खेल
जिंदगी के ओलंपिक में
सब खेल ही हो थे
आँखों के खेल
सियासत के खेल
गृहस्थी के खेल
बहुत उत्कण्ठा होती थी
खेल देखने की
खेल खेलने की भी
जूझती हुई
सब खेल हारी मैं
नहीं बोला गया
किसी भी मंच से मेरा नाम
किसी पदक के लिए
किसी पद के लिए
उन लाखो करोडो
खिलाडियों की तरह
जो टाट पर प्रैक्टिस कर
मखमल पर ट्रायल देते हुए
फिसल जाते हैं
उनके पास
फिसलन प्रतिरोधी
न जूते होते है
न कोच होते है
बस सपने होते हैं
एक देश होता है
ट्रायल में
गहरी चोट खा
वो बाहर बैठ जाते है
और फिर कोई
खेल न खेलते है
न देखते ही है

सुनीता धारीवाल

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें