दुःख मवाद सा होता है
होता है गर भीतर
तो टीस देता है चीस देता है
हरा रहता है भरा रहता है
यकायक फट पड़ता है
आँखों के रस्ते
दिल चीर कर रस्ते बनाता हुआ
श्वास में भर जाता हैं
रुंध देता है गले को और आवाज को
और निकाल लेता है
ताकत सारे तन की
तब इंसान बैठता नहीं
बस लड़खड़ाता है
हर आहट हड़बड़ाता है
उसका दिमाग गड़बड़ाता है
और वो इंसान नहीं रहता
लाश पर कपडे टंगे
खूँटी सा होता है
वो इंसान नहीं होता
चलती फिरती लाश होता है
वरिष्ठ सामाजिक चिंतक व प्रेरक सुनीता धारीवाल जांगिड के लिखे सरल सहज रोचक- संस्मरण ,सामाजिक उपयोगिता के ,स्त्री विमर्श के लेख व् कवितायेँ - कभी कभी बस कुछ गैर जरूरी बोये बीजों पर से मिट्टी हटा रही हूँ बस इतना कर रही हूँ - हर छुपे हुए- गहरे अंधेरो में पनपनते हुए- आज के दौर में गैर जरूरी रस्मो रिवाजों के बीजों को और एक दूसरे का दलन करने वाली नकारात्मक सोच को पनपने से रोक लेना चाहती हूँ और उस सोच की फसल का नुक्सान कर रही हूँ लिख लिख कर
बुधवार, 10 अगस्त 2016
दुःख
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