सुनो तुम
रंगरेज मेरे
मेरे उलझे पुलझे
बेरंग से धागे
रंग दो न
अपने रंग में
मैं सतरंगी सपनो में
ढूंढना चाहती हूं
खुद को
मटमैले धागों को
कुछ पल के लिए
रंगना चाहती हूं
तुम्हारे खौलते रंग घोल से
चाहती हूं फिर सूखना
तुम्हारे तन की आंच पर
फिर बनना है मुझको
तुम्हारी पगड़ी
इतराना मुझ पर
बनूँ मैं तुम्हारी
मां का आँचल
तुम छुप जाना
मुझ में जब चाहो
तुम्हारा मैं
झूला बनूं
गहरी निंदिया
आए तुम्हे
तेरे बंदनवार की
झालर बनूँ
बाजूं रुनक झुनक
तेरे दर पर
मैं बनूं कोई
छतरी रंगीन
बरखा से तुझको
ओट करूँ
मैं बनूं शामयिना
तेरे उत्सव का
कड़ी धूप में तेरी
छांव बनू
मैं बनू गमछा
तेरे कांधे का
लूँ सोख जल
तेरे तप श्रम का
जब उम्र चुके
और रंग ढले
पायदान बनूँ
तेरे घर का
तेरे चरणों मे
मेरा सूत मिटे
बस अंत समय
हो जाऊं माटी
तेरी देहरी की
तेरे आँगन की
ओ रंगरेज
सुनो तुम
रंग दो न
मेरे उलझे से
मटमैले घागे
रंग दो न
अपने रंग में
बदरंग सी मैं
उलझी पुलझी हूँ
लकीरो में आड़ी टेड़ी
तुम सुलझा दो
और रंग दो न
@SD
वरिष्ठ सामाजिक चिंतक व प्रेरक सुनीता धारीवाल जांगिड के लिखे सरल सहज रोचक- संस्मरण ,सामाजिक उपयोगिता के ,स्त्री विमर्श के लेख व् कवितायेँ - कभी कभी बस कुछ गैर जरूरी बोये बीजों पर से मिट्टी हटा रही हूँ बस इतना कर रही हूँ - हर छुपे हुए- गहरे अंधेरो में पनपनते हुए- आज के दौर में गैर जरूरी रस्मो रिवाजों के बीजों को और एक दूसरे का दलन करने वाली नकारात्मक सोच को पनपने से रोक लेना चाहती हूँ और उस सोच की फसल का नुक्सान कर रही हूँ लिख लिख कर
बुधवार, 2 मई 2018
सुनो रंगरेज मेरे
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